शीर्षक ….प्रेम या निर्वाह
सुलेखा छत पर सीढ़ियों से लगभग दौड़ती हुई पहुंची ।उसकी सांस फूलने लगी ।उठती बैठती धड़कनें उसको स्पष्ट सुनाई दे रही थी ।गर्म तन पर जब बारिश की बूंदें पड़ीं तो वह सिंहर उठी ।रोम रोम जैसे एक अनकहे एहसास से पुलकित हो उठा ।
उसे लगा अभी अनुरूप जी आयेंगे और टी बी सीरियल के हीरो की तरह आकर उसको अपने आलिंगन में कस लेंगे ।इसी खूबसूरत एहसास को महसूस करते हुए उसने सारे कपड़े तार से उतार लिए।
इधर नीचे अनुरूप जी ऑफिस से आने के बाद टी वी देखने में मशगूल थे ।
सुलेखा कपड़े दोनों बाहों में भरकर नीचे ले आई ।एक उछली सी नजर से अनुरूप जी ने उसकी तरफ देखा और फिर से टीबी स्क्रीन पर नजरें चिपका लीं।
“मुझसे अच्छी हर चीज है चाहे अखबार हो टीबी हो या किताब ।”सुलेखा मन ही मन बड़बड़ाई ।
वह थोड़ा सटकर उनके पास बैठ गई ।तभी जेठानी का बच्चा आ गया ।
“चाचू आज मेरे लिए चॉकलेट नहीं लाए ?”उसने रोते हुए तोतली जुबान से कहा ।
“अभी चल रहा हूं ।”कहते हुए उसने बच्चे को गोद में बैठा लिया और निकल गया बाहर बच्चे को चॉकलेट दिलाने ।
सुलेखा ने गहरी सांस ली अब उसके मन के रोमांटिक भाव काफूर हो चुके थे ।
फिर से मन पति के पीछे दौड़ने लगा ।कितने सपने देखे थे उसने पति के लिए कि विवाह के बाद अनुरूप अपने नाम के अनुरूप ही उसका ख्याल रखेंगे उस पर किसी फिल्मी दीवाने प्रेमी की तरह जान छिड़केंगे ।बिलकुल उसी नीले बड़े घोड़े वाले राजकुमार की तरह जो अक्सर उसे सपने में अपने घोड़े पर बैठाकर दूर खूबसूरत वादियों में घुमाने ले जाता और उसके गेसुओं की छांव में बैठकर उसकी नजरों से नजरें मिलाकर न जाने कितनी ही अनसुनी बातें कर जाता ।
“बहु आज खाने में कुछ हल्का सा बना लेना ज्यादा गरिष्ठ भोजन ठीक नहीं रहेगा रात में ।”सुनकर सुलेखा चुप रह गई और प्रुत्तर में बस गर्दन ही हिलाई ।
सुलेखा सोचने लगी रात के व्यक्तिगत पलों में अनुरूप के पास उड़ेलने के लिए प्रेम का अथाह समुद्र होता है जो भोर होने से पहले ही सूख जाता है और उस दलदल में सुलेखा का वजूद जैसे कहीं खो सा जाता है ।
प्रेम भी अजीब सा होता है बस थोड़े से ही में खुश ।प्रियतम अगर प्रेम भरी निगाह निगाह से मिला ले तो सारे सिकवे गिले और दुख दर्द दूर हो जाते हैं ।
लेकिन ऐसा प्रेम जिसे वासना के अतिरिक्त और कुछ नही कहा जा सकता वह नाभी के नीचे से ही शुरू होता है आंखों से उसका कोई लेना देना नहीं ।
दो पल हाथों में हाथ डालकर साथी के साथ चार कदम चलना जैसे कदमों को नई ऊर्जा से भर देता है।
धीरे धीरे सुलेखा का मन पीछे को खिंचने लगा क्योंकि प्रेम एक जगह एक बंधन में रुकता ही कहां है वो तो पागल पवन सा समधुर धुन सा बस बजता ही रहना चाहता है ।
“आजकल तुम मुझसे खिंची खिंची सी रहती हो ।”अनुरूप ने उसे आलिंगन में लेते हुए कहा तो वह कसमसाई और चिल्लाकर कह देना चाहती थी कि यह प्रेम अब उससे नहीं होता लेकिन वह चुप हो रही खामोशी से उस तूफान को गुजर देना चाहती थी क्योंकि वह अनुरूप से प्रेम करती है सच्चा प्रेम भले ही उसका प्रेम प्रेम के अनुरूप नहीं हो ।
“तुमने कभी पूछा नहीं मुझे क्या पसंद है ?”सुलेखा ने अपना पल्ला ठीक करते हुए कहा ।
“अरे इसमें पूछना ही क्या ,हम तुम एक ही हैं न ..दो जिस्म एक
जान ।”अनुरूप ने करवट लेकर अल्साई आवाज में कहा ।
प्रेम के बीच फिर से यह जिस्म शब्द आने से उसका मन विचलित हो गया वह खामोश हो गई उस नदी की तरह जो तूफान लिए होती है और खामोशी भी ।
सबकी अपनी अपनी परिभाषाएं हैं प्रेम की लेकिन क्या निर्वाह करना अपने प्रियतम से भी प्रेम है या कुछ नहीं ?
धीरे धीरे सुलेखा दो बच्चों की मां भी बन गई उसी वासना भरे प्रेम से लेकिन अब उसका प्रेम ममता का रूप ले चुका था अब वह किसी प्रेम की तलाश में नहीं रही
क्योंकि आकर्षण समाप्त हो चुका था और प्रेम तो था ही नहीं ।
