संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य
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भगवान् विष्णु का ब्रह्माजी को पुरुषोत्तम क्षेत्र में जाने का आदेश…(भाग 1)
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नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ‘भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके तत्पश्चात् भगवान् की विजय-कथा से परिपूर्ण इतिहास- पुराणादि का कीर्तन करे।’
मुनि बोले- भगवन् ! आप सब शास्त्रों के तत्त्वज्ञ तथा सब तीर्थों के महत्त्व को जानने वाले हैं।
भगवन् ! पुरुषोत्तमक्षेत्र परम पावन है, जहाँ भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु मानवलीला के अनुसार काष्ठमय विग्रह धारण करके विराजमान हैं, जो दर्शनमात्र से ही सबको मोक्ष देने वाले और सब तीर्थों का फल प्रदान करने वाले हैं,
उनकी महिमा का हमसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये। जैमिनिजी ने कहा- मुनियो ! यह अत्यन्त गूढ़ रहस्य है,
सुनो। यद्यपि ये भगवान् जगन्नाथ सर्वत्र व्यापक और सबको उत्पन्न करने वाले हैं तथापि यह परम उत्तम पुरुषोत्तम क्षेत्र इन महात्मा जगदीश्वर का साक्षात् स्वरूप है। वहाँ वे स्वयं ही शरीर धारण करके निवास करते हैं।
इसीलिये उस क्षेत्र को भगवान ने अपने नाम से प्रसिद्ध किया। वह क्षेत्र दस योजन के विस्तार में है। उसका प्रादुर्भाव तीर्थराज समुद्र के जल से हुआ है तथा वह सब ओर बालुकाराशि से व्याप्त है।
उसके मध्यभाग में महान् नीलगिरि उस तीर्थ की शोभा बढ़ाता है।

पूर्वकाल में वराहरूपधारी भगवान ने इस पृथ्वी को समुद्र के जल से निकालकर जब सब ओर से बराबर करके स्थापित किया और पर्वतों द्वारा सुस्थिर कर दिया, तब ब्रह्माजी ने पहले की भाँति समस्त चराचर जगत् की सृष्टि करके तीर्थों, सरिताओं, नदियों और क्षेत्रों को यथास्थान स्थापित किया।
तत्पश्चात् सृष्टि के भार से पीड़ित होकर वे सोचने लगे।
आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-इन तीन प्रकार के तापों से पीड़ित होने वाले संसार के जीव इनसे किस प्रकार मुक्त होंगे।
इस प्रकार विचार करते हुए ब्रह्माजी के मन में यह भाव आया कि मैं मुक्ति के एकमात्र कारण परमेश्वर श्रीविष्णु का स्तवन करूँ

क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी