संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
वैष्णव-खण्ड [ भूमिवाराहखण्ड या वेंकटाचल-महात्म्य ]
पापनाशन तीर्थ की महिमा – भद्रमति ब्राह्मण का चरित्र…(भाग 1)
वेंकटाचल पर चढ़ने के पूर्व उस पुण्यवर्द्धक पर्वत की इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये- हे स्वर्णाचल ! हे महापुण्यमय ! सर्वदेवसेवित गिरिश्रेष्ठ ! ब्रह्मा आदि देवता भी जिनकी श्रद्धापूर्वक सेवा करते हैं, उन्हीं आपके ऊपर मैं अपने दोनों पैरों से चलूँगा।
मुझ पापचेता पुरुष के इस पाप को आज आप कृपापूर्वक क्षमा करें। आपके शिखर पर निवास करने वाले भगवान् लक्ष्मीपति का आप मुझे दर्शन कराइये।
इस प्रकार पर्वतश्रेष्ठ वेंकटाचल की प्रार्थना करके मनुष्य उसपर धीरे- धीरे चले। ऊपर पहुँचकर सब पापों का नाश करने वाले परम पुण्यमय स्वामिपुष्करिणी तीर्थ में नियमपूर्वक स्नान करे।
तत्पश्चात् पितरों को पिण्डदान करे। ऐसा करने से स्वर्गवासी पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं और नरकवासी पितर स्वर्ग में चले जाते हैं।
तदनन्तर उस पर्वत के ऊपर जो सब तीर्थों में श्रेष्ठ और पवित्र पापविनाशन नामक तीर्थ है, जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य फिर गर्भ में नहीं आता, उसके पास जाकर उसमें स्नान करना चाहिये। वह स्वामितीर्थ से उत्तर दिशा में है।
वहाँ स्नान करने से मनुष्य वैकुण्ठधाम में जाते हैं। पूर्वकाल में भद्रमति नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो वेद-वेदांगों के पारंगत पण्डित थे, परंतु वे बड़े दरिद्र थे।
उनके पास जीविका का कोई साधन नहीं था। उन बुद्धिमान् ब्राह्मण ने सम्पूर्ण शास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्रों का श्रवण किया था। उनके छः स्त्रियाँ थीं। कृता, सिन्धु, यशोवती, कामिनी, मालिनी और शोभा-ये उनके नाम थे।
उनके गर्भसे ब्राह्मण ने दो सौ पुत्र उत्पन्न किये थे। वे सभी पुत्र आदि भूख से पीड़ित हो रहे थे। अपने प्यारे पुत्रों और प्रियतमा पत्नियों को क्षुधा से व्याकुल देखकर दरिद्र भद्रमति विलाप करने लगा- ‘हाय ! भाग्यहीन जन्म को धिक्कार है, धन और कीर्ति से रहित जीवन को धिक्कार है।
उस जन्म को भी धिक्कार है, जिसमें धनाभाव के कारण अतिथियों का सत्कार न हो पाता हो। ज्ञान और सदाचार से शून्य जीवन को भी धिक्कार है और बहुत सन्तानों वाले मनुष्य के धनहीन जन्म को भी धिक्कार है।
ब्राह्मण, पुत्र, पौत्र, भाई, बन्धु और शिष्य आदि सभी मनुष्य धनहीन पुरुष को त्याग देते हैं। जो धनवान् है, वह निर्दयी हो या दयावान्, गुणहीन हो या गुणवान्, मूर्ख हो या पण्डित तथा सब धर्मों से युक्त हो या धर्महीन, यदि वह ऐश्वर्यके गुणसे युक्त है, तो पूजने ही योग्य होता है।
अहो! दरिद्रता बड़ा भारी दुःख है, उसमें भी आशा तो अत्यन्त दुःखदायिनी होती है। आशाके वशीभूत हुए मनुष्य क्षण-क्षण में दुःख भोगते हैं। जो आशा के दास हैं, वे समस्त संसार के दास हैं और जिन्होंने
आशा को अपनी दासी बना लिया है उनके लिये यह सम्पूर्ण जगत् दास के तुल्य है। अहो! दरिद्रता महान् दुःख है, महान् दुःख है, महान् दुःख है। उसमें भी पुत्र और स्त्रियों का अधिक होना तो और भी दुःखदायी है।’
शेष अगले अंक में जारी
