संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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वैष्णव-खण्ड [ भूमिवाराहखण्ड या वेंकटाचल-महात्म्य ]
राजा परीक्षित् को ब्राह्मण का शाप, तक्षक के काटने से उनकी मृत्यु तथा उनकी रक्षा न करने के पाप से कलंकित काश्यप ब्राह्मण का स्वामिपुष्करिणी में स्नान करके शुद्ध होना…(भाग 2)
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तक्षक बोला – विप्रवर ! मैं ही तक्षक हूँ। मैं जिसे काट लूँ, उसकी चिकित्सा सौ वर्षों में भी, दस हजार महामन्त्रों से भी नहीं हो सकती। यदि तुममें मेरे काटे हुए को भी अपनी चिकित्सा द्वारा जिला देने की शक्ति है, तो बहुत ऊँचे इस वृक्ष को मैं डसता हूँ, तुम जिला दो।
यों कहकर तक्षक ने उस वृक्ष को काट लिया। उसके डसते ही वह अत्यन्त ऊँचा वृक्ष जलकर भस्म हो गया। उस वृक्ष पर पहले से ही कोई मनुष्य चढ़ा हुआ था, वह भी तक्षक के विष की ज्वालाओं से दग्ध हो गया। तब मन्त्रज्ञों में श्रेष्ठ काश्यप ने अपनी मन्त्रशक्ति से उस जले हुए वृक्ष को भी जिला दिया।
उसके साथ ही वह मनुष्य भी जी उठा। यह देख तक्षक ने मन्त्रकुशल काश्यप से कहा- ‘ब्रह्मन् ! राजा तुम्हें जितना धन दे सकते हैं, उससे दूना मैं देता हूँ। इसे लेकर शीघ्र लौट जाओ।’ यों कहकर तक्षक ने उसे बहुमूल्य रत्न देकर लौटा दिया।
तत्पश्चात् तक्षक ने सब सर्पों को बुलाकर कहा- ‘तुम सब लोग मुनियों के वेष धारण करके राजा के पास जाओ और उन्हें भेंट में फल समर्पित करो।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर सभी राजा को फल देने लगे।
उस समय तक्षक भी किसी बेर के फल में कृमिका रूप धारण करके राजा को डसने के लिये बैठ गया। ब्राह्मणरूपी सर्पों के दिये हुए सभी फल राजा परीक्षित् ने बूढ़े मन्त्रियों को देकर कौतूहलवश एक मोटे फल को हाथ में ले लिया।
इसी समय सूर्य भी अस्ताचल पर पहुँच गये। उस फल में सब लोगों ने तथा राजा ने भी एक लाल रंग का कीट देखा, वही तक्षक था। उसने शीघ्र ही फल से निकलकर राजा के शरीर को लपेट लिया।
यह देख आसपास बैठे हुए सब लोग भय से भाग गये। ब्राह्मणो ! तक्षक की अत्यन्त प्रबल विषाग्नि से राजा परीक्षित् मण्डप सहित तत्काल जलकर भस्म हो गये। पुरोहित और मन्त्रियों ने उनका और्ध्वदेहिक संस्कार करके प्रजा की रक्षा के लिये उनके पुत्र जनमेजय को राजा के पदपर अभिषिक्त कर दिया।
तक्षक से राजा की रक्षा करने के लिये जो काश्यप नामक ब्राह्मण आया था, उसकी सब लोग निन्दा करने लगे।
अन्त में वह शाकल्य मुनि की शरण में गया और उन्हें प्रणाम करके बोला- ‘भगवन् ! आप सब धर्मों के ज्ञाता और भगवान् विष्णु के प्रिय भक्त हैं। ये मुनि, ब्राह्मण, सुहृद् तथा अन्य लोग जो मेरी निन्दा करते हैं, इसका क्या कारण है, यह मैं नहीं जानता।
यदि आप जानते हों तो बतायें।’ तब महामुनि शाकल्य ने क्षणभर ध्यान करके काश्यप से कहा- ‘तुम तक्षक से महाराज परीक्षित् को बचाने के लिये जा रहे थे, किंतु आधे मार्ग में तक्षक ने तुम्हें मना कर दिया।
जो मनुष्य विष, रोग आदि की चिकित्सा करने में समर्थ होकर भी काम, क्रोध, भय, लोभ, मात्सर्य अथवा मोह से विष एवं रोग से पीड़ित मनुष्य की रक्षा नहीं करता, वह ब्रह्महत्यारा, शराबी, चोर, गुरुपत्नीगामी तथा इन सबके संसर्ग दोष से दूषित है।
उसके उद्धार का कोई उपाय नहीं है। महाराज परीक्षित् पवित्र यशवाले, धर्मात्मा, विष्णुभक्त, महायोगी तथा चारों वर्णों की रक्षा करने वाले थे। उन्होंने व्यासपुत्र शुकदेवजी से – भक्तिपूर्वक श्रीमद्भागवत की कथा सुनी थी।
ऐसे पुण्यात्मा राजा की रक्षा न करके जो तुम तक्षक के कहने से (धन लेकर) लौट गये उसी कारण से – श्रेष्ठ ब्राह्मण और बन्धु-बान्धव तुम्हारी निन्दा – करते हैं।
मरने वाले मनुष्य के प्राण जबतक कण्ठ में रहते हैं, तबतक उसकी चिकित्सा करनी चाहिये। तुम चिकित्सा करने में समर्थ होकर भी उनकी दवा किये बिना ही आधे मार्ग से लौट आये। इसलिये तुम वास्तव में निन्दा के पात्र हो।’
क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी