संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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वैष्णव-खण्ड [ भूमिवाराहखण्ड या वेंकटाचल-महात्म्य ]
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वाराहभगवान् तथा अस्थिसरोवर तीर्थ की महिमा, भक्त कुम्हार तथा राजा तोण्डमान का परमधाम गमन…(भाग 1)
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भगवान् वाराह कहते हैं- एक दिन निषादराज वसु तोण्डमान के द्वार पर आया। द्वारपालों से उसके आगमन की सूचना पाकर महाराज ने उसे दरबार में बुलाया और मन्त्रियों के साथ पुत्र और परिवार सहित उसका स्वागत-सत्कार किया।
तत्पश्चात् प्रसन्न होकर उन्होंने वसु से पूछा- ‘वनेचर ! किस कार्य से तुम्हारा यहाँ आगमन हुआ है?’
वसु ने कहा- राजन् ! मैंने वन में एक बड़े आश्चर्य की बात देखी है, उसे सुनिये। रात में कोई श्वेत रंग का वाराह आकर मेरा सावाँ चरने लगा।
तब मैंने हाथ में धनुष लेकर उसका पीछा किया। खदेड़ने पर वह वायु के समान वेग से भागा और मेरे देखते-देखते स्वामिपुष्करिणी के तटपर वल्मीक में घुस गया। तब मैंने क्रोधवश उस वल्मीक को खोदना आरम्भ किया। इतने में ही मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसी समय मेरा यह पुत्र भी आ गया और मुझे पृथ्वी पर मूर्छित होकर पड़ा देख, पवित्र होकर देवाधिदेव भगवान् मधुसूदन की स्तुति करने लगा। तब भगवान् वाराह का मुझमें आवेश हुआ, उन्होंने मेरे पुत्र से कहा- ‘निषादराज ! तुम शीघ्र राजा के पास जाकर मेरा सारा वृत्तान्त उनसे कहो। राजा काली गौ के दूध से अभिषेक करते हुए इस वल्मीक को धो डालें, तब इसके भीतर एक परमसुन्दर शिला दिखायी देगी। उसे लेकर किसी कारीगर से मेरी मूर्ति बनवावें, जिसमें मैं भूमिदेवी को अपने बायें अंक में लेकर खड़ा रहूँ और मेरा मुख सूकर के समान हो। मूर्ति तैयार हो जाने पर बड़े-बड़े मुनीश्वरों और वैखानस महात्माओं द्वारा उसकी स्थापना कराकर स्वयं तोण्डमान भी उसकी पूजा करें।’ यों कहकर भगवान् वाराह ने मुझे छोड़ दिया, तब मैं स्वस्थ हो गया। देवाधिदेव भगवान् वाराह आपसे क्या कराना चाहते हैं, यह बतलाने के लिये ही मैं यहाँ आया हूँ।
क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी
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