संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य
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विद्यापति का शबर के साथ नीलमाधव का दर्शन करके तीर्थ की परिक्रमा करना और अवन्ती में जाकर राजा इन्द्रद्युम्न को
सब समाचार सुनाना…(भाग 5)
इन्द्रद्युम्न बोले- समस्त संसार की सृष्टि, पालन और संहाररूपी शिल्प के कारीगर! आपकी जय हो। अपने विश्वरूप के रोम-रोम में लीला से ही असंख्य ब्राह्मणों का भार धारण करने वाले नारायण ! आपकी जय हो। प्रभो! आप सबके अन्तर्यामी तथा शरणागतों का दुःख दूर करने वाले हैं। ब्रह्मा, इन्द्र तथा रुद्र आदि देवताओं के मुकुट से आपके चरणारविन्दों की विचित्र शोभा होती है। आप दीनों, अनाथों और विपत्तिग्रस्त प्राणियों की रक्षा में सदैव तत्पर रहते हैं।
अकारणकरुणावरुणालय ! परात्पर! आपकी जय हो। जगन्नाथ ! भक्तवत्सल ! मैं अनादि काल से भ्रम में भटकने वाला दीन मनुष्य एकमात्र आपकी शरण में आया हूँ, आप मेरी रक्षा करें।
इस प्रकार स्तुति करके राजा अपने आसन पर बैठे। उस समय गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी सब उन्हें घेरे हुए थे। अठारहों विद्याओं में कुशल यज्ञकर्ता ब्राह्मणों के साथ राजा ने बहुत आदरपूर्वक विद्यापति का पूजन किया और अपने सामने चौकी पर बिठाकर आदि से ही कुशल-समाचार पूछा। पुरुषोत्तमक्षेत्र के माहात्म्य, नीलमणिविग्रहधारी भगवान् विष्णु की महिमा तथा स्वरूप के विषय में भी प्रश्न किया। तब विद्यापति ने अपने अनुभव में आये हुए शबरद्वीप में प्रवेश से लेकर समुद्र में स्नान करने तक के पुरुषोत्तम-क्षेत्रसम्बन्धी समस्त वृत्तान्त को विस्तारपूर्वक कह सुनाया। नीलाचल पर चढ़ना, नीलमाधव का दर्शन करना, रौहिण कुण्ड में स्नान करना, कल्पवट की महिमा, नृसिंह आदि स्वरूपों की प्रतिष्ठा, आठ शिव और आठ शक्तियों की स्थिति, रथ से घूमकर देखी हुई पुरुषोत्तम क्षेत्र की लंबाई और चौड़ाई सबका क्रमशः यथावत् वर्णन किया। वह अद्भुत वृत्तान्त सुनकर प्रसन्नचित्त हुए राजा इन्द्रद्युम्न ने कहा- ‘भगवन्!
नीलेन्द्रमणिमय विग्रह वाले भगवान् विष्णु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन कीजिये।’

विद्यापति बोले- राजन् ! मैं भगवान् जगन्नाथ की उस दिव्य मूर्ति का वर्णन करता हूँ, जिसे इस चर्मचक्षु से देखकर मनुष्य मोक्ष का भाजन बन जाता है। भगवान् की वह मूर्ति बहुत प्राचीन तथा इन्द्रनीलमणि नामक प्रस्तर की बनी है। ब्रह्मा, रुद्र और इन्द्र आदि देवता प्रतिदिन जाकर उसकी पूजा करते हैं। यह दिव्य माला देवताओं ने ही पूजा में चढ़ायी थी। राजन् ! यह न तो कभी मलिन होती है और न कभी इसकी सुगन्ध ही कम होती है। भगवान् के दिव्य उपहार में आये हुए प्रसाद के भक्षण करने से मेरे समस्त पाप क्षीण हो गये हैं और मैं देवताओं के सदृश अलौकिक तेज से सम्पन्न हो गया हूँ। क्या आप इस बात को नहीं देख रहे हैं? महाराज! वहाँ भोग और मोक्ष दोनों एक ही साथ स्थित हैं। बुढ़ापा, रोग और शोक आदि दुःखों का वहाँ अत्यन्त अभाव है। उस तीर्थ में विकसित नीलकमल के सदृश विशाल नेत्रों वाले साक्षात् भगवान् जगन्नाथ प्रसन्नवदन से विराजमान हैं, जो शरणागतों को अमृतमय मोक्ष प्रदान करते हैं।
क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी