संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य
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विद्यापति का शबर के साथ नीलमाधव का दर्शन करके तीर्थ की परिक्रमा करना और अवन्ती में जाकर राजा इन्द्रद्युम्न को
सब समाचार सुनाना…(भाग 4)
इस प्रकार परस्पर पुण्यमयी चर्चा करके दोनों सुन्दर स्थान में पल्लव बिछी हुई शय्यापर सो गये। सबेरा होने पर दोनों ने तीर्थराज समुद्र के जल में विधिपूर्वक स्नान किया और भगवान् माधव को प्रणाम करके राजा के रहने योग्य उत्तम स्थान का निश्चय करने के पश्चात् वे दोनों लौट आये। तत्पश्चात् मित्र से विदा लेकर ब्राह्मण रथ पर आरूढ़ हो अवन्तीपुरी को चले।
रथ पर बैठे हुए विद्यापति ब्राह्मण ने यह विचार किया कि मैंने जो भगवान् नीलमाधव का दर्शन कर लिया, उससे मेरा कर्तव्य पूरा हो गया। अब श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र की परिक्रमा करके शीघ्र यहाँ से लौटू।
ऐसा निश्चय करके वे नाना प्रकार के वृक्षों से भरे हुए क्षेत्र और वन को देखते हुए उस समय उस पुरुषोत्तमतीर्थ की परिक्रमा करने लगे। परिक्रमा पूरी करके भगवान् का ध्यान करते हुए बिना खाये-पीये चले और सन्ध्या होते-होते अवन्तीपुरी में पहुँच गये।
दूतों ने महाराज को उनके लौटने का समाचार सुनाया; सुनकर महाराज इन्द्रद्युम्न बहुत प्रसन्न हुए। वे भगवान् जनार्दन की पूजा करके विद्वान् ब्राह्मणों के साथ प्रसन्नता पूर्वक बैठे और विद्यापति के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
इसी समय प्रवेश मार्ग बताने वाले छड़ीदार सिपाहियों और द्वारपालों द्वारा सूचित किये हुए रास्ते से उत्कण्ठित पुरवासियों के साथ विद्यापति ब्राह्मण ने भगवान् नीलमाधव की प्रसादस्वरूप सुन्दर माला हाथ में लेकर राजा के आगे दरबार में प्रवेश किया।
उन्हें देखकर राजा सिंहासन से उठकर खड़े हो गये और ‘हे जगदीश ! प्रसन्न होइये’ ऐसा कहते हुए उनके समीप गये। तत्पश्चात् यों बोले- ‘आज मेरा जीवन, जन्म और कर्म दोनों ही दृष्टियों से सफल हो गया; क्योंकि इस समय मैं यहाँ प्रसादमाला के रूप में साक्षात् माधव का दर्शन कर रहा हूँ।
संसार के समस्त पापों का विनाश करने वाली भगवान् विष्णु के मस्तक पर चढ़ी हुई इस दिव्य माला को मैं प्रणाम करता हूँ।
जिनके चरणकमलों की धूलि को अपने मस्तक में लगाकर ब्रह्मा आदि देवताओं ने महान् ऐश्वर्य प्राप्त किया है, उन भगवान् विष्णु के श्रीअंगों में लगे हुए उज्वल अंगराग से संयुक्त पुष्पों की आधारभूत इस माला को मैं प्रणाम करता हूँ। हे नीलाचल के शिखर को विभूषित करने वाले पापहारी हरि! आपकी जय हो। शरणागतों की पीड़ा दूर करने वाले श्रीमान् नारायण ! मैं आपकी शरण में आया हूँ, मेरा उद्धार कीजिये।’

अश्रुगद्गद वाणी से इस प्रकार कहते हुए राजा इन्द्रद्युम्न ने धरती पर मस्तक रखकर भगवान् को प्रणाम किया। उस समय उनके अंग-अंग में रोमांच हो आया था।
वे विद्यापति ब्राह्मण भी समस्त पापों से रहित हो भगवान् माधव का ध्यान करते हुए राजा के सम्मुख उपस्थित हुए और इस प्रकार बोले- ‘अपने तेज से सम्पूर्ण लोकों के पापों का निवारण करने वाले परम बुद्धिमान् नीलाचलशिखर-निवासी भगवान् श्रीमाधव आपपर अनुग्रह करें।’
यों कहकर विद्यापति ने वह माला राजा इन्द्रद्युम्न के गले में डाल दी। राजा ने भी उठकर अपने हृदय पर लटकती हुई माला को देखकर ऐसा माना कि इसके रूप में साक्षात् भगवान् लक्ष्मीपति ही मेरे हृदय में आ गये हैं।
फिर दोनों हाथ मस्तक पर जोड़कर उन्होंने अपने नेत्र कुछ-कुछ बंद कर लिये और आनन्द के आँसुओं से गद्गदकण्ठ होकर श्रीहरि का इस प्रकार स्तवन किया।
क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी