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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण-उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य - Sanatan-Forever

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण-उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण-उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण

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उत्कलखण्ड या पुरुषोत्तमक्षेत्र-महात्म्य

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पुण्डरीक और अम्बरीष द्वारा भगवान्‌ की स्तुति तथा पुरुषोत्तम क्षेत्र में रहकर भजन करने से उनकी मुक्ति का वर्णन…(भाग 3)

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अम्बरीष बोला- देव ! सर्वात्मन् ! मुझपर प्रसन्न होइये। आपके मस्तक और भुजाएँ असंख्य हैं।

नासिका, नेत्र और हाथ-पैरों की भी कोई संख्या नहीं है। आपको नमस्कार है। विश्वमूर्ते ! आप छत्तीस तत्त्वों से परे हैं। प्रपंच से रहित होते हुए भी इसके विस्तार में सहायक हैं। जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज- इन चार प्रकार के प्राणियों से भरे हुए जगत् के आप ही आश्रय हैं।

आपको नमस्कार है। जिनके चरणों से प्रकट हुई गंगा तीनों लोकों को पवित्र करती है, जिनका नाम ब्रह्महत्या आदि पापों की निश्चित शुद्धि करने वाला है तथा कीर्तन करने पर सबको कल्याण प्रदान करता है, उन कल्याणस्वरूप आप परमात्मा को नमस्कार है।

देव! केवल आपके नामकीर्तन से भी सब प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। बुद्धिशाली विद्वान् पुरुष कौतूहल पूर्वक आपकी खोज करते हैं। नाथ! आपके चरणकमलों के जल (चरणोदक) का आश्रय लेने पर वह सन्ताप को हर लेता है।

मैं तीनों तापों से पीड़ित हूँ। अपने इन युगल चरणों में मेरी भक्ति दृढ़ कर दीजिये। मेरा दूसरा कोई स्वामी नहीं है तथा मेरे माँगने योग्य दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है।

जगन्नाथ! मैं आपके चरणों में सहस्रों बार प्रणाम करके यह याचना करता हूँ कि जबतक मैं प्राण धारण करूँ तबतक आपके इन युगल चरणकमलों में ही मेरी दृढ़ भक्ति बनी रहे।

आपके ये चरण ही समस्त पुरुषार्थों के बीज हैं। इन चरणों की भक्ति करके ब्रह्माजी ने यह सृष्टि की है, रुद्रदेव सबका संहार करते हैं तथा लक्ष्मीजी सबको ऐश्वर्य प्रदान करती हैं।

दीनों पर दया करने वाले प्रभो! मैं अनन्यचित्त होकर आपके उन्हीं चरणों की भक्ति माँगता हूँ। अनादि अविद्या के इस दुस्तर एवं सुदृढ़ पंक में डूबकर मैं कोई आश्रय न मिलने के कारण नष्ट हो रहा हूँ।

जगन्नाथ! इससे मेरा उद्धार करने के लिये आपकी महामहिमामयी भक्ति के सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं है। आपकी भक्ति को छोड़कर कोई भी साधन प्राणियों का उद्धार करने में समर्थ नहीं है।

स्वामिन् ! आपके अतिरिक्त दूसरा कोई मुझे शरण देने वाला नहीं है। प्रभो! मुझ शरणागत पर कृपा कीजिये।

क्रमशः…

शेष अगले अंक में जारी

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