संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण
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वैष्णव-खण्ड [ भूमिवाराहखण्ड या वेंकटाचल-महात्म्य ]
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मेरुगिरि पर भगवान् वाराह की सेवा में पृथ्वीदेवी का उपस्थित होना और श्रेष्ठ पर्वतों तथा वेंकटाचलवर्ती तीर्थों का महात्म्य सुनना…(भाग 1)
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एक समय कथा कहने के लिये रोमहर्षण- पुत्र उग्रश्रवा मुनि आये, जो व्यासजी के परम बुद्धिमान् शिष्य थे। वहाँ आनेपर मुनियों ने उनका भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। तत्पश्चात् पौराणिकों में श्रेष्ठ सूतजी ने उनसे स्कन्द नामक दिव्य पुराण की कथा कही। सृष्टि-संहार, वंश- परिचय, विभिन्न वंशों में उत्पन्न महापुरुषों के चरित्र तथा मन्वन्तरों की कथा का उन्होंने विस्तारपूर्वक वर्णन किया। तीर्थों के महात्म्य की बहुत-सी कथाएँ सुनकर उन मुनिवरों ने अपनी इन्द्रियों को वश में रखने वाले सूतजी से कथाश्रवण की अभिलाषा मन में रखकर इस प्रकार कहा।

ऋषि बोले-रोमहर्षणकुमार सूतजी ! आप सर्वज्ञ हैं, पौराणिक विषयों का वर्णन करने में कुशल हैं, अतः हमलोग आपके मुख से भूतल के मुख्य-मुख्य पर्वतों का महात्म्य सुनना चाहते हैं।

सूतजी ने कहा- महर्षियो ! पूर्वकाल में मैंने यही प्रश्न गंगाजी के तट पर बैठे हुए मुनिश्रेष्ठ व्यासजी से पूछा था। उसके उत्तर में मेरे सर्वोत्तम गुरु व्यासजी ने इस प्रकार कहा।

व्यासजी बोले-सूत ! प्राचीन युग की बात है। एक दिन मुनिश्रेष्ठ नारद नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित सुमेरु-पर्वत के शिखर पर गये और उसके मध्यभाग में ब्रह्माजी का अत्यन्त प्रकाशमान दिव्य एवं विस्तृत भवन देखा। उसके उत्तर प्रदेश में पीपल का एक उत्तम वृक्ष था, जिसकी ऊँचाई एक हजार योजन की और विस्तार दुगुना था।

उस पीपल के मूलभाग के समीप अनेक प्रकार के रत्नों से युक्त दिव्य मण्डप बना हुआ था, जिसमें वैदूर्य, मोती और मणियों के द्वारा स्वस्तिक गृह बनाये गये थे। वह दिव्यमण्डप नूतन रत्नों से चिह्नित तथा दिव्य तोरणों (बाहरी फाटकों)- से सुशोभित था।

उसका मुख्य द्वार पुष्पराग मणि का बना हुआ था, जिसका गोपुर सात मंजिलका था। चमकते हुए हीरों से बनाये गये दो किवाड़ उस द्वार की शोभा बढ़ा रहे थे। उस मण्डप के भीतर प्रवेश करके नारदजी ने देखा, दिव्य मोतियों का एक मण्डप है, उसमें वैदूर्यमणि की वेदी बनी हुई है। महामुनि नारद उस ऊँचे मण्डप के ऊपर चढ़ गये।

वहाँ उक्त मण्डप के मध्यभाग में एक बहुत ऊँचा सिंहासन था, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। उस मध्यभाग में सहस्र दलों से सुशोभित दिव्य कमल था, जिसका रंग श्वेत था। उसकी प्रभा सहस्रों चन्द्रमाओं के समान थी। उस कमल के मध्य में दस हजार पूर्ण चन्द्रमाओं से भी अधिक कान्तिमान् कैलाशपर्वत के समान आकार वाले एक सुन्दर पुरुष बैठे हुए थे।

उनके चार भुजाएँ थीं, अंग-अंग से उदारता टपक रही थी, वाराह के समान मुख था। वे परम सुन्दर भगवान् पुरुषोत्तम अपने चारों हाथों में शंख, चक्र, अभय एवं वर धारण किये हुए थे। उनके कटिभाग में पीताम्बर शोभा पाता था। दोनों नेत्र कमलदल के समान विशाल थे। सौम्यमुख पूर्ण चन्द्रमा की शोभा को तिरस्कृत कर रहा था। मुखारविन्द से धूप की-सी सुगन्ध निकलती थी।

सामवेद उनकी ध्वनि, यज्ञ उनका स्वरूप, सुक् उनका मुख था और स्रुवा उनकी नासिका थी। मस्तक पर धारण किये हुए मुकुट के प्रकाश से उनका मुख अत्यन्त उद्भासित हो रहा था। उनके वक्षः स्थल में श्रीवत्स का चिह्न सुशोभित था। श्वेत यज्ञोपवीत धारण करने से उनके श्रीअंगों की शोभा और भी बढ़ गयी थी। उनकी छाती चौड़ी और विशाल थी।

वे कौस्तुभमणि की दिव्य प्रभा से देदीप्यमान हो रहे थे। ब्रह्मा, वसिष्ठ, अत्रि, मार्कण्डेय तथा भृगु आदि अनेक मुनीश्वर दिन-रात उनकी सेवा में संलग्न रहते थे।

इन्द्र आदि लोकपालों और गन्धर्वों से सेवित देवदेवेश्वर भगवान् के पास जाकर नारदजी ने प्रणाम किया और पृथ्वी को धारण करने वाले उन वाराहभगवान्‌ का दिव्य उपनिषद्-मन्त्रों से स्तवन करके अत्यन्त प्रसन्न हो वे उनके पास ही खड़े हो गये।

क्रमशः…
शेष अगले अंक में जारी
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आध्यात्म एवं ज्योतिष में दशमी तिथि का महत्त्व
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हिंदू पंचाग की दसवीं तिथि दशमी कहलाती है। इस तिथि का नाम धर्मिणी भी है क्योंकि इस तिथि में शुभ कार्य करने से शुभ फल प्राप्त होता है। इसे हिंदी में द्रव्यदा भी कहते हैं। यह तिथि चंद्रमा की दसवीं कला है, इस कला में अमृत का पान वायुदेव करते हैं। दशमी तिथि का निर्माण शुक्ल पक्ष में तब होता है जब सूर्य और चंद्रमा का अंतर 109 डिग्री से 120 डिग्री अंश तक होता है। वहीं कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि का निर्माण सूर्य और चंद्रमा का अंतर 289 से 300 डिग्री अंश तक होता है। दशमी तिथि के स्वामी यमराज को माना गया है। आरोग्य और दीर्घायु प्राप्ति के लिए इस तिथि में जन्मे जातकों को यमदेव की पूजा अवश्य करनी चाहिए।

दशमी तिथि का ज्योतिष में महत्त्व
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यदि दशमी तिथि शनिवार को पड़ती है तो मृत्युदा योग बनाती है। इस योग में शुभ कार्य करना वर्जित है। इसके अलावा दशमी तिथि गुरुवार को होती है तो सिद्धा कहलाती है। ऐसे समय कार्य सिद्धि की प्राप्ति होती है। बता दें कि दशमी तिथि पूर्णा तिथियों की श्रेणी में आती है, इस तिथि में किए गए कार्यों की कार्य पूर्ण होते हैं। वहीं किसी भी पक्ष की दशमी तिथि पर भगवान शिव का पूजन करना वर्जित माना जाता है। आश्विन महीने के दोनों पक्षों में पड़ने वाली दशमी तिथि शून्य कही गई है।

दशमी तिथि में जन्मे जातक को धर्म और अर्धम का ज्ञान भलीभांति होता है। उनमें देशभक्ति कूट कूटकर भरी होती है। ये लोग धार्मिक कार्यों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हैं। ये हमेशा जोश और उत्साह से भरे होते हैं। वे अपने विचार दूसरों के सामने प्रकट करने में संकोच नहीं करते हैं। ये लोग काम करने में हठी होते हैं लेकिन उदार भी बने रहते हैं। इन तिथि में जन्मे लोग आर्थिक रूप से संपन्न और दूसरों की भलाई करने में लगे रहते हैं। इन जातकों में कलात्मकता भी होती है। ये रंगमंच यानि थिएटर जैसी कला के प्रति जागरुक रहते हैं। ये लोग पारिवार को सदैव अपने साथ लेकर चलने वाले होते हैं।

दशमी तिथि के शुभ कार्य
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दशमी तिथि में नए ग्रंथ का विमोचन, शपथग्रहण समारोह, उदघाटन करना आदि सम्बन्धित कार्य करने चाहिए। साथ ही इस तिथि में वाहन, वस्त्र खरीदना, यात्रा, विवाह, संगीत, विद्या व शिल्प आदि कार्य करना भी लाभप्रद रहता है। इसके अलावा किसी भी पक्ष की दशमी तिथि में उबटन लगाना और मांस, प्याज, मसूर की दाल खाना वर्जित है।

दशमी तिथि के प्रमुख हिन्दू त्यौहार एवं व्रत व उपवास
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विजयादशमी
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आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरा के पर्व मनाया जाता है। यह त्योहार अर्धम पर धर्म की विजय का प्रतीक है। इस दिन नए व्यापार, नए वाहन, आभूषण को खरीदना शुभ माना जाता है।

गंगा दशहरा
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ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को गंगा दशहरा का पर्व मनाया जाता है। इस दिन गंगा नदी में स्नान करना शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन मां गंगा धरती पर अवतरित हुई थी।

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