श्री शिव महापुराण
श्रीकैलाश संहिता (प्रथम खंड)
तेरहवां अध्याय
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प्रणव सब मंत्रों का बीज रूप है… (भाग 1)
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स्कंद जी बोले- हे वामदेव जी! प्रातःकाल स्नान से निवृत्त होने के पश्चात गंध, पुष्प और अक्षत आदि पूजा की सामग्रियों से भगवान शिव और श्रीगणेश का विधिपूर्वक पूजन और ध्यान करें।
पूर्णाहुति देकर हवन करें और गायत्री मंत्र का जाप करें। इसी प्रकार सायंकाल में संध्या करें। सद्योजात के पांच मंत्रों से हवन करें। मन में भगवान शिव का देवी पार्वती सहित ध्यान करते हुए गायत्री मंत्र का उच्चारण करते हुए आहुति दें।

‘भूर्भुवः सुवरोत्र’ कहते हुए त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप का ध्यान करें। देवाधिदेव महादेव जी के पांच मुख, दस भुजाएं, पंद्रह नेत्र और उज्ज्वल मनोहारी स्वरूप हैं।
उनकी पत्नी देवी पार्वती जगतमाता त्रिलोक को उत्पन्न करने वाली और निगुर्णमयी हैं। ऐसा मन में विचार करते हुए ज्ञानी पुरुष गायत्री मंत्र का जाप करें। पार्वती जी ही आदि देवी, त्रिपदा, ब्राह्मणत्व दात्री और अजा हैं।

वे व्याहृतियों से उत्पन्न हैं और उसी में लीन हो जाती हैं। वे जगतमाता देवी पार्वती वेदों की आदि प्रणव और शिवपात्री हैं। प्रणव मंत्र ही सब मंत्रों का बीज रूप है।
प्रणव ही शिव है और शिव ही प्रणव हैं। मोक्ष की नगरी काशी में मरने वाले मनुष्य को शिवजी इसी मंत्र की शिक्षा देते हैं।
तभी ज्ञानी पुरुष को मुक्ति मिलती है। इसलिए सभी को अपने हृदय में भगवान शिव को धारण कर सदा उनका पूजन करना चाहिए।

क्रमशः शेष अगले अंक में…