श्री शिव महापुराण
श्रीउमा संहिता (प्रथम खंड)
(सत्ताईसवां अध्याय)
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अमरत्व प्राप्ति की साधनाएं… (भाग 1)
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पार्वती जी बोलीं- हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह बताएं कि योगीजन वायु के पद को कैसे प्राप्त करते हैं?
यह सुनकर महादेव जी बोले- हे कल्याणी! जिस प्रकार दरवाजे की देहरी पर रखा दीपक घर के अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है,
उसी प्रकार हमारे हृदय के भीतर स्थित वायु भी अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करती है। ज्ञान, विज्ञान और उत्साह सभी का मूल वायु ही है।
इसलिए जिसने वायु पर अपनी विजय प्राप्त कर ली है, उसे पूरे जगत पर विजय प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार लोहार मुख से फूंकनी में फूक (वायु) भरता हुआ अपने काम में लगा रहता है,
उसी प्रकार संत और योगीजन भी अपने अभ्यास में लगे रहते हैं। अभ्यास करते-करते जब वे पारंगत हो जाते हैं तो वे आसन से दस अंगुल ऊपर उठ जाते हैं।
प्राणायाम में सिर एवं व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जाप करते हुए प्राणवायु को रोका जाता है और अंदर स्थित वायु को नाक के रास्ते बाहर फेंका जाता है। इसे करने से बड़ा उत्तम फल मिलता है।
योगीजनों को एकांत स्थान पर, जहां सूर्य-चंद्र का प्रकाश हो, सोना चाहिए। आंखों को अंगुलियों द्वारा बंद करके ध्यानमग्न होने पर योगीजनों को ईश्वर की ज्योति के दर्शन होते हैं।
जब योगीजनों को इस प्रकार अंधकार में ईश्वर ज्योति के दर्शन हो जाते हैं तब वह योगी परम सिद्ध हो जाता है। उसे अनेक सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।
वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसे मोक्ष रूपी परम तत्व की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार ध्यान करने वाले योगियों को तुरीय गति प्राप्त हो जाती है।
क्रमशः शेष अगले अंक में…
