श्रीउमा संहिता (प्रथम खंड)
गर्भ में स्थित जीव, उसका जन्म तथा वैराग्य… (भाग 1)
व्यास जी बोले- हे महर्षे! आपने हमारी बहुत-सी जिज्ञासाओं को शांत किया है। अब आप हमें जीव का जन्म, उसकी गर्भ में स्थिति एवं जीव के वैराग्य के बारे में बताइए।
महामुनि व्यास के प्रश्न को सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे मुने! हमारे शरीर की पुष्टि रस एवं मैल से हुई है। मैल बारह रूपों में शरीर से बाहर होता है। कान, आंख, नाक, जीभ, दांत, लिंग, गुदा, मलाशय, स्वेद, कफ, विष्ठा, मूत्र आदि मल स्थान हैं।
हमारा हृदय सभी नाड़ियों से जुड़ा हुआ है। इसी के द्वारा शरीर में रस पहुंचता है। यही रस आत्मा से परिपक्व होता हैं। जब यह रस पकता है तो सर्वप्रथम त्वचा का निर्माण होता है और त्वचा शरीर से लिपट जाती है। फिर खून बनता है।
तत्पश्चात रोम, बाल, स्नायु, अस्थि, मज्जा पैदा होते हैं। ऋतुकाल में स्त्रियों के शरीर में प्रवेश वीर्य शरीर का निर्माण करता है। एक दिन में कलिल, पांच दिन में बबूला, सात रात्रि में मांस पिंड बन जाता है।
धीरे-धीरे समय के साथ-साथ जीव के अंग बनते जाते हैं। इस प्रकार जीव अपनी माता के गर्भ में बढ़ता है और उसका विकास होता है। अपनी माता द्वारा खाए गए भोजन के रस से ही उसे भी भोजन मिलता है।
इस प्रकार अपनी माता के गर्भ में पलता हुआ जीव अपने बारे में विचार करता है। उसे सुख-दुख की प्राप्ति भी अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार होती है।
उसे गर्भ में ज्ञान होता है कि मैं इसी तरह जन्म-मरण पाता रहता हूं और प्रत्येक योनि में अनेकों दुखों को भोगता हूं। इसलिए मुझे अपनी आत्मा के उद्धार के लिए अवश्य ही कुछ करना चाहिए।
गर्भ में जीव अनेकों कष्टों को भोगता है क्योंकि गर्भ भी एक प्रकार की कैद ही है। जीवात्मा गर्भ में इस प्रकार पड़ी रहती है, जैसे उस पर कोई पहाड़ रखा हो। इस प्रकार गर्भ में वह अनेक कष्टों को भोगता है।
गर्भ में अनेक दुख और यातनाएं झेलनी पड़ती हैं। तभी तो धर्मात्मा सातवें माह में ही जन्म ले लेते हैं और पापी नौ महीने तक गर्भ की परेशानियों और कष्टों को झेलते हैं।
क्रमशः शेष अगले अंक में…
