श्री गया प्रसाद जी महाराज
बाबा जी महाराज गोवर्धन जी में विराजते थे।
वे नित्य सोहनी सेवा करते। सोहनी सेवा करने का उनका भाव यह था कि मेरे प्रियालालजी इसी पथ से गुजरेंगे और इस पथ के कंकड़ पत्थर, कांटे उन्हें ना चुभे,
प्रियालाल जी को इस पथ पर चलने में कोई कष्ट न हो ऐसा उनका भाव था। पथ की सफाई करते हुए उन्हें कोई कांटा चुभ जाता तो आनन्द से उछलते कि अच्छा हुआ यह कांटा मुझे चुभा,
अगर यह प्रियालाल जी के चरनन में चुभता तो उनको कितना कष्ट होता। मेरी स्वामिनी कितनी कोमल हैं वे यह दर्द कैसे सहती। अच्छा हुआ यह कांटा मुझे चुभा।

सोहनी सेवा करते करते सोहनी झड़ जाती थी छोटी हो जाती थी तो वे उसे एक गड्डा बनाकर उसको समाधि देते।
उसमे उनका भाव यह था कि इस सोहनी ने प्रियालाल जी की सेवा की है और ब्रज रज का इसे नित्य अभिषेक प्राप्त हुआ है,
यह तो परम वंदनीया है, इसे यहाँ वहां फैंक देंगे तो किसी के पैर उस पर पड़ेंगे और सोहनीजी की अवहेलना हो जायेगी। यह दिव्य भाव उनका था।
बाबा अपनी कुटिया के सामने सोहनी लगाते तो सोहनी लगाते लगाते रोने लगते।
एक दिन एक सिद्ध महात्मा उनके पास आये और बोले बाबा आप क्यों रो रहे हैं?
तो बाबा ने कहा “क्या बतावे महाराज जी ! मै बार-बार सोहनी लगाता हूँ और ये कनुवा बार बार पत्थर कंकड़ लाकर मेरी कुटि के सामने डाल देता है, मुझे परेशान करने में इसको आनंद आता है,
इसी ख़ुशी के कारण मुझे आनंदश्रु आ रहे हैं, यह कनुवा का प्यार ही तो है।
