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श्रावण मास महात्म्य (चौथा अध्याय) - Sanatan-Forever

श्रावण मास महात्म्य (चौथा अध्याय)

श्रावण मास महात्म्य (चौथा अध्याय)

श्रावण मास महात्म्य (चौथा अध्याय)

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धारणा-पारणा, मासोपवास व्रत और रूद्र वर्तिव्रत वर्णन में सुगंधा का आख्यान

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! अब मैं धारण-पारण व्रत का वर्णन करूँगा. प्रतिपदा के दिन से आरंभ कर के सर्वप्रथम पुण्याहवाचन कराना चाहिए. इसके बाद मेरी प्रसन्नता के लिए धारण-पारण व्रत का संकल्प करना चाहिए. एक दिन धारण व्रत करें और दूसरे दिन पारण व्रत करें. धारण में उपवास तथा पारण में भोजन होता है. श्रावण मास के समाप्त होने पर सबसे पहले पुण्याहवाचन कराना चाहिए. इसके बाद हे मानद ! आचार्य तथा अन्य ब्राह्मणों का वरन करना चाहिए. तत्पश्चात पार्वती तथा शिव की स्वर्ण निर्मित प्रतिमा को जल से भरे हुए कुम्भ पर स्थापित कर रात में भक्तिपूर्वक पूजन करना चाहिए तथा पुराण-श्रवण आदि के साथ रात भर जागरण करना चाहिए।

प्रातःकाल अग्निस्थापन कर के विधिपूर्वक होम करना चाहिए. “त्र्यम्बक.” इस मन्त्र से तिलमिश्रित भात की आहुति डालनी चाहिए. उसी प्रकार शिव गायत्री मन्त्र से घृत मिश्रित भात की आहुति डाले और पुनः षडाक्षर मन्त्र से खीर की आहुति प्रदान करें. तदनन्तर पूर्णाहुति देकर होमशेष का समापन करना चाहिए. इसके बाद में ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए तथा साथ ही आचार्य की पूजा करनी चाहिए. हे महाभाग ! इस प्रकार से उद्यापन संपन्न कर के मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पातकों से मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संदेह नहीं है. अतएव इस महाव्रत को अवश्य करना चाहिए।

हे मुने ! अब श्रावण में मास-उपवास की विधि को आदरपूर्वक सुनिए. प्रतिपदा के दिन प्रातःकाल इस व्रत का संकल्प करें. स्त्री हो या पुरुष मन तथा इन्द्रियों को नियंत्रित कर के इस व्रत को करें. अमावस्या तिथि को लोक का कल्याण करने वाले वृष ध्वज शंकर की अर्चना-पूजा षोडश उपचारों से करें. तदनन्तर अपनी सामर्थ्य के अनुसार वस्त्र तथा अलंकार आदि से ब्राह्मणों का पूजन करें, उन्हें भोजन कराएं तथा प्रणाम कर के विदा करें. इस प्रकार से किया गया मास-उपवास व्रत मेरी प्रसन्नता कराने वाला होता है. हे सनत्कुमार ! मनुष्यों को सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाले लक्षसङ्ख्यापरिमित रुद्रवर्ती व्रत के विधान को सावधान होकर सुनिए।

अत्यंत आदरपूर्वक कपास के ग्यारह तंतुओं से बत्तियाँ बनानी चाहिए. वे रुद्रवर्ती नामवाली बत्तियाँ मुझे प्रसन्न करने वाली हैं. “मैं श्रावण मास में भक्तिपूर्वक डिवॉन के देव गौरीपति महादेव का इन एक लक्ष संख्यावाली बत्तियों से नीराजन करूँगा” – इस प्रकार श्रावण मास के प्रथम दिन विधिपूर्वक संकल्प कर के महीने भर प्रतिदिन शिवजी का पूजन कर एक हजार बत्तियों से नीराजन करें और अंतिम दिन इकहत्तर हजार बत्तियों से नीराजन करें अथवा प्रतिदिन तीन हजार बत्तियाँ आदरपूर्वक अर्पण करें और अंतिम दिन तेरह हजार बत्तियाँ समर्पित करें अथवा एक ही दिन सभी एक लाख बत्तियों को मेरे समक्ष जलाएं. प्रचुर मात्रा में घृत में भिगोई जो स्निग्ध बत्तियाँ होती हैं, वे मुझे प्रिय हैं. ततपश्चात मुझ विश्वेश्वर का पूजन कर के कथा-श्रवण करें।

सनत्कुमार बोले – हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे जगदानंदकारक ! कृपा करके आप मुझे इस व्रत का प्रबह्व बताएं. हे प्रभो ! इस व्रत को सर्वप्रथम किसने किया तथा इसके उद्यापन में क्या विधि होती है?

ईश्वर बोले – हे ब्रह्मपुत्र ! व्रतों में उत्तम इस रूद्र वर्ति व्रत के विषय में सावधान होकर सुनिए. यह व्रत महापुण्यप्रद, सभी उपद्रवों का नाश करने वाला, प्रीति तथा सौभाग्य देने वाला, पुत्र-पौत्र-समृद्धि प्रदान करने वाला, व्रत करने वाले के प्रति शंकर जी की प्रीति उत्पन्न करने वाला तथा परम पद शिवलोक को देने वाला है. तीनों लोकों में इस रुद्रवर्ती के सामान कोई उत्तम व्रत नहीं है. इस संबंध में लोग यह प्राचीन दृष्टांत देते हैं –

क्षिप्रा नदी के रम्य तट पर उज्जयिनी नामक सुन्दर नगरी थी. उस नगरी में सुगंधा नामक एक परम सुंदरी वीरांगना थी. उसने अपने साथ संसर्ग के लिए अत्यंत दुःसह शुल्क निश्चित किया था. एक सौ स्वर्णमुद्रा देकर संसर्ग करने की शर्त राखी थी. उस सुगंधा ने युवकों तथा ब्राह्मणों को भ्रष्ट कर दिया था. उसने राजाओं तथा राजकुमारों को नग्न कर के उनके आभूषण आदि लेकर उनका बहुत तिरस्कार किया था. इस प्रकार उस सुगंधा ने बहुत लोगों को लूटा था।

उसके शरीर की सुगंध से कोस भर का स्थान सुगन्धित रहता था. वह पृथ्वी तल पर रूप-लावण्य और कांति की मानो निवास स्थली थी. वह छह रागों और छत्तीस रागिनियों के गायन में तथा उनके अन्य बहुत से भेदों की भी गान क्रिया में अत्यंत कुशल थी. वह नृत्य में रम्भा आदि देवांगनाओं को भी तिरस्कृत कर देती थी और अपने एक-एक पग पर अपनी गति से हाथियों तथा हंसों का उपहास करती थी. किसी दिन वह सुगंधा कटाक्षों तथा भौंह चालान के द्वारा काम बाणों को छोड़ती हुई क्रीड़ा करने के विचार से क्षिप्रा नदी के  तट पर गई. उसने ऋषियों के द्वारा सेवित मनोरम नदी को देखा. वहां कई विप्र ध्यान में लगे हुए थे तथा कई जप में लीन थे. कई शिवार्चन में रत थे तथा कई विष्णु के पूजन में तल्लीन थे. हे महामुने ! उसने उन ऋषियों के बीच विराजमान मुनि वशिष्ठ को देखा।

उनके दर्शन के प्रभाव से उसकी बुद्धि धर्म में प्रवृत्त हो गई. जीवन तथा विशेष रूप से विषयों से उसकी विरक्ति हो गई. वह अपना सिर झुकाकर बार-बार मुनि को प्रणाम कर के अपने पाऊँ की निवृत्ति के लिए मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी से कहने लगी  –

सुगंधा बोली – हे अनाथनाथ ! हे विप्रेन्द्र ! हे सर्वविद्याविशारद ! हे योगीश ! मैनें बहुत-से पाप किए हैं, अतः हे प्रभो ! उन समस्त पापों के नाश के लिए मुझे उपाय बताइए.

ईश्वर बोले – हे सनत्कुमार ! उस सुगंधा के इस प्रकार कहने पर वे दीन वत्सल मुनि वशिष्ठ अपनी ज्ञान दृष्टि से उसके कर्मों को जानकर आदरपूर्वक कहने लगे।

वशिष्ठ बोले – तुम सावधान होकर सुनो ! जिस पुण्य से तुम्हारे पाप का पूर्ण रूप से नाश हो जाएगा, वह सब मैं तुम से अब कह रहा हूँ. हे भद्रे ! तीनों लोकों में विख्यात वाराणसी में जाओ, वहां जाकर तीनों लोकों में दुर्लभ, महान पुण्य देने वाले तथा शिव के लिए अत्यंत प्रीतिकर रुद्रवर्ती नामक व्रत को उस क्षेत्र में करो. हे भद्रे ! इस व्रत को कर के तुम परमगति प्राप्त करोगी।

ईश्वर बोले – तब उसने अपना धन लेकर सेवक तथा मित्र सहित काशी में जाकर वशिष्ठ के द्वारा बताए गए विधान के अनुसार व्रत किया. इस प्रकार उस व्रत के प्रभाव से वह सशरीर उस शिवलिंग में विलीन हो गई. हे सनत्कुमार ! इस प्रकार जो स्त्री इस परम दुर्लभ व्रत को करती है, वह जिस-जिस अभीष्ट पदार्थ की इच्छा करती है, उसे निःसंदेह प्राप्त करती है।

हे सुव्रत ! अब आप माणिक्यवर्तियों का माहात्म्य सुनिए ! हे विपेन्द्र ! उन माणिक्यवर्तियों के व्रत से स्त्री मेरे अर्ध आसन की अधिकारिणी हो जाती है और महाप्रलयपर्यन्त वह मेरे लिए प्रिय रहती है. अब मैं इस व्रत की सम्पूर्णता के लिए उद्यापन का विधान बताऊँगा. चांदी की बनी हुई नंदीश्वर की मूर्ति पर आसीन सुवर्णमय भगवान् शिव की पार्वती सहित प्रतिमा को कलश पर स्थापित करना चाहिए और विधि के साथ पूजन कर के रात्रि में जागरण करना चाहिए।

इसके बाद प्रातःकाल नदी में निर्मल जल में विधिपूर्वक स्नान कर के ग्यारह ब्राह्मणों सहित आचार्य का वरण करना चाहिए। तत्पश्चात रुद्रसूक्त से अथवा गायत्री से अथवा मूल मन्त्र से घृत, खीर तथा बिल्वपत्रों का होम करना चाहिए. इसके बाद पूर्णाहुति होम कर के आचार्य आदि की विधिवत पूजा करनी चाहिए तथा सपत्नीक ग्यारह उत्तम विप्रों को भोजन कराना चाहिए।

हे सनत्कुमार ! जो स्त्री इस प्रकार से व्रत करती हैं, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाती हैं. ततपश्चात विधानपूर्वक कथा सुनकर स्थापित की गई समस्त सामग्री ब्राह्मण को दे देनी चाहिए. इससे निश्चित रूप से हजार अश्वमेघ यज्ञों का फल प्राप्त होता है।

||इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अंतर्गत ईश्वरसनत्कुमारसंवाद में श्रावणमास माहात्म्य में “धारणापारणामासोपवास-रुद्रवर्तीकथन” नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ||

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