*लालची व्यक्ति कभी भी तुष्ट नहीं होता है*
असन्तुष्टस्य विप्रस्य तेजो विद्या तपो यश:।
स्रवन्तीन्द्रियलौल्येन ज्ञानं चैवावकीर्यते॥
भक्त या ब्राह्मण जो आत्म-तुष्ट नहीं होता, उसका आध्यात्मिक ज्ञान, विद्या, तपस्या तथा कीर्ति उसकी इन्द्रिय लोलुपता के कारण क्षीण हो जाते हैं और उसका ज्ञान शनैः शनैः लुप्त हो जाता है।
कामस्यान्तं हि क्षुत्तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात्।
जनो याति न लोभस्य जित्वा भुक्त्वा दिशो भुव:॥
भूख तथा प्यास से पीड़ित मनुष्य की प्रबल शारीरिक इच्छाएँ तथा आवश्यकताएँ भोजन करने के बाद निश्चित रूप से तुष्ट हो जाती हैं।
इसी प्रकार यदि कोई क्रोध करता है, तो प्रताड़ना तथा उसके फल द्वारा क्रोध तुष्ट हो जाता है।
लेकिन जहाँ तक लालच की बात है,_ _*यदि लालची व्यक्ति संसार की सारी दिशाओं को जीत ले या संसार की प्रत्येक वस्तु का भोग कर ले तो भी वह तुष्ट नहीं होगा।*

*🔅🔆🚩चिंतन प्रवाह🚩🔆🔅*
_*जब तक सुख की चाहना रहती है, तब तक व्यक्ति दुःख से बच नहीं सकता। कारण कि सुख के आदि और अंत में दुःख ही रहता है तथा सुख से भी प्रति क्षण स्वभाविक वियोग होता रहता है।*_
_*जिसके वियोग को यह प्राणी नहीं चाहता, उसका वियोग तो हो ही जाता है, यह नियम है। तात्पर्य यह हुआ कि सुख की इच्छा को मनुष्य नहीं छोड़ता और दुःख इसको नहीं छोड़ता। कहा भी गया है कि त्याग से बड़ा कोई भी सुख नहीं है, क्योंकि त्याग बाहरी दुःख हो सकता है, किन्तु अपनी आत्मा में इससे प्रसन्नता प्राप्त होती है।*_