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ये बेटे का घर है हमारा नहीं। - Sanatan-Forever

ये बेटे का घर है हमारा नहीं।

ये बेटे का घर है हमारा नहीं।

ये बेटे का घर है हमारा नहीं।

“पापा, ये गिलास यहां टेबल पर नहीं अंदर सिंक में रखकर आइये, अभी तान्या ऑफिस से आयेगी तो गुस्सा करेगी, उसे ये सब फैलावड़ा पसंद नहीं है, और आप अपना ये अखबार, किताबें, चश्मा और दवाइयां भी यहां से हटा लीजिए, ड्राइंगरुम साफ सुथरा होना चाहिए, मै तान्या के लिए कॉफी चढ़ा देता हूं।” विपुल ने हरीश बाबू से कहा और अपने काम में लग गया।

हरीश बाबू का अभी हार्ट का ऑपरेशन हुआ था, बेटे के बुलावे पर उसी के शहर में आ गये थे ताकि अच्छे अस्पताल में इलाज हो सकें, इलाज चल ही रहा था, अभी डॉक्टर ने कुछ दवाईयां दी थी, जो समय पर लेनी थी, उनकी पत्नी सुरेखा जी तभी कमरे में आई और सारा कमरा साफ करने लगी, कहीं कुछ रह गया तो बहू कल की तरह फिर से गुस्सा करेंगी, गिलास खुद ही उठाकर अंदर रख आई।

“विपुल, तेरे बाबूजी और मेरे लिए भी चाय चढ़ा दे, मौसम बड़ा ठंडा हो रहा है।” उन्होंने कॉफी बना रहे बेटे को कहा।
“अरे! मम्मी, अभी तो आप दोनों ने चाय पी है और फिर से चाय चाहिए, थोड़ा नियंत्रण में रहना सीखिए, बार-बार क्या चाय पीना और खाना !

बेटे विपुल के मुंह से ये सब सुनकर सुरेखा जी भौंचक्की रह गई, वो तो बेटे के घर को अपना घर समझकर रहने आई थी, पर यहां आकर उन्हें लगा कि ये उनका घर नहीं है, वो तो यहां बस मेहमान है, जिन्हें दो वक्त की रोटी और चाय भी नापतौल कर दी जाती है, अपने गांव के घर में वो जब कभी चाय पी लेती थी, मनमर्जी से कुछ भी खा लेती थी, पर यहां तो बेटे के घर में उन्हें बहुत सोच-समझकर बोलना पड़ता है, मजबूरी में यहां आई थी, वो और हरीश बाबू अच्छे भले गांव में रह रहे थे, अचानक से हरीश बाबू की तबीयत बिगड़ने लगी, और उन्हें सांस लेने में दिक्कत होने लगी, गांव के डॉक्टर को दिखाया पर वो दवाई ज्यादा काम ना कर सकी, विपुल को बताया तो उसने गांव से शहर आने को कहा, क्योंकि गांव में इलाज की सुविधाएं नहीं थी।

सुरेखा जी जैसे-तैसे हरीश जी को शहर ले आई, वहां डॉक्टर को दिखाया तो काफी महंगा इलाज बताया।
“मम्मी, आपके पास पापा के इलाज के पूरे पैसे हो तो मै आगे बात करूं? वरना देख लीजिए,” विपुल ने बिना लाग-लपेट के बोला।

अपने आंसू आंखों में रोकते हुए उन्होंने बेटे के हाथों में फसल से आये पूरे पैसे रख दिये तब जाकर विपुल ने उन्हें डॉक्टर को दिखाया और इलाज शुरू करवा दिया।

सुरेखा, यहां से चलो, मै यहां नहीं रहना चाहता हूं, मेरा
यहां मन नहीं लगता, मुझे यहां क्यों ले आई? इस घर में मेरा दम घुटता है, ये बेटे का घर है, हमारा नहीं हरीश बाबू बोले जा रहे थे।

“आप चुपचाप लेटे रहिए, अब ये डॉक्टर की दवाइयां, मुझ कम पढ़ी-लिखी को तो समझ नहीं आती है, इसलिए मुझे यहां आना पड़ा, अब जैसे भी बेटे-बहू रखें, रहलो।”

इलाज होते ही यहां से चले जायेंगे, वो दिलासा दिलाते हुए बोली।
तान्या अपने ऑफिस से आ चुकी थी, तान्या बेहद ही नकचढ़ी और गर्म मिजाज लड़की है, जिसे ना अपने सास-ससुर की परवाह है और ना ही घर की परवाह है।

उसके आते ही विपुल ने उसे कॉफी दी, और अपने ऑफिस के काम में लग गया।
सुरेखा जी डायबिटीज की मरीज थी, उन्हें हर थोड़ी देर में भूख लगती थी, शाम हो चली थी, और अभी तक रोटी बनाने वाली नहीं आई थी, उन्हें भूख लग रही थी, बहू की रसोई में सिर्फ रोटी बनाने वाली ही जा सकती थी, सुरेखा जी को वहां कुछ भी करने की इजाजत नहीं थी।

सुरेखा, मुझे पता है, तुझे भूख लग रही है, और आज रोटी बनाने वाली नहीं आई, चल अपने घर ही चलते हैं, बेटे के घर में तो हमारी भूख, प्यास और हमारी कोई कदर ही नहीं है।

तभी विपुल कमरे में आता है,” तान्या और मुझे एक पार्टी में जाना है, तो सुबह की रोटी बनी रखी है वो खा लेना, मैंने अचार निकालकर रख दिया है।”

लेकिन, तेरे बाबूजी तो हार्ट पेशेंट है, उनके लिए तो दलिया बनाना होगा…..सुरेखा जी की बात को अनसुनी करते हुए विपुल और तान्या पार्टी के लिए चले गए।

सुरेखा जी ने कैसरोल में देखा, दो पतली पापड़ सी रोटी पड़ी थी, उन्हें तो इस तरह ठंडी रोटी खाने की आदत नहीं थी, आखिर अपने गांव में हमेशा गर्म और मोटी रोटी खाई है, उन्होंने हिम्मत की और हरीश जी के लिए दलिया चढ़ा दिया, उन्हें दलिया खिलाकर दवाई दे दी फिर खुद ने वो रोटी खा ली।

सामान ऊपर से उतार तो दिया, पर उनसे दोबारा रखा नहीं गया, रात को दोनों देर से आयें और सो गये।
सुबह तेज आवाज से उनकी नींद खुली, वो सीधा उठकर बाहर गई।

“मम्मी, आपने किसकी इजाजत से मेरे घर में दलिया बनाया, और पूरी रसोई बिखरा दी, सुरेखा जी समझ गई, उनका बेटा बहू की जुबान से बोल रहा है, क्योंकि बहू को कुछ कहने की जरूरत ही नहीं होती है, सब कुछ बेटा कह देता है।

आज सुरेखा जी से रहा नहीं गया वो बिफर गई, “हां पता है ये तेरा घर है, और तेरे घर में तेरी ही चलती है, ये बात अलग है कि ये तेरा फ्लैट तेरे बाबूजी ने अपनी जमीन बेचकर तुझे दिलाया था, इस घर पर हमारा कोई हक नहीं है, हमें तो इतना भी हक नहीं है कि हम अपनी मर्जी से अपनी पसंद का कुछ बनाकर खा सकें।”

“तेरे घर में हम दोबारा चाय नहीं पी सकते, ये बात और थी कि जब तू छोटा था तो हमने अपना पेट काटकर तुझे दोनों समय दूध पिलाया था, तेरे नखरे उठाए थे, तेरी पसंद का खाना बनाकर मै तुझे खिलाने को तेरे पीछे दौड़ा करती थी, तेरी पसंद का खाना बनाकर मै तेरे चेहरे पर खुशी देखना चाहती थी, तेरी पसंद के लिए मै और तेरे बाबूजी अपनी पसंद भुला देते थे।”

तेरी घर में तेरी पत्नी को हमारा बिखरा सामान पसंद नहीं है, ये बात अलग है कि तूने अपना बचपन मेरे घर में बिताया था, जहां तेरे खिलौने हमेशा बिखरे रहते थे, तेरी किताबें तेरी स्कूल के कपड़े, तेरे पेन पेंसिल पूरे घर में फैले रहते थे, तेरे गंदे जूतों की मिट्टी से रोज आंगन गंदा हो जाता था।”

“तेरे घर में तू अपने हिसाब से रह सकता है, तेरी पत्नी रह सकती है, पर तेरे माता-पिता को तेरे घर में खुश रहने की इजाजत नहीं है, तेरा घर हमारे लिए तो जेल है, जहां हम अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकते हैं।

हां, बेटा ये तेरा घर है, जहां तेरी मां अपनी मर्जी से सांस भी नहीं ले सकती है, मैंने गांव में फोन करके तेरे चाचा को बुला लिया है, हम दोपहर को ही अपने घर चले जायेंगे, ये तेरा साफ-सुथरा घर तुझे मुबारक हो, और तेरे बाबूजी का इलाज भी मै खुद शहर आकर करवा लूंगी, अब तो मै भी सब जान गई हूं, तेरा घर तू अपने पास में ही रख, हमारे पास ईश्वर की कृपा से गांव में घर है, जहां हम अपना बुढ़ापा बीता लेंगे, पर तेरे घर में कभी कदम नहीं रखेंगे।”

“अपने बीमार पिता को तुझे ये कहते हुए शर्म नहीं आई कि गिलास सिंक में रखना, अभी वो कमजोर है और बीमार भी है, गिलास और सामान तू भी अंदर रख सकता था, पर तुझे तो अपनी पत्नी की सेवा से फुर्सत मिले तो हमारे लिए कुछ करेगा।”

विपुल को अपनी गलती का अहसास हुआ पर तब तक बहुत देर हो गई थी, सुरेखा जी अपने पति हरीश बाबू के साथ अपने घर चली गई।

पाठकों, ये सच ही है जिस तरह बच्चे अपने माता-पिता के घर में बरसों अपनी मनमर्जी से रहते हैं, खाते-पीते हैं, उसी तरह माता-पिता बच्चों के घर में अपनी मर्जी से ना तो रह पाते हैं, ना ही खा-पी सकते हैं ।

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