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पितृपक्ष एवं श्राद्घ का पुराणों मे महत्त्व (भाग 5) - Sanatan-Forever

पितृपक्ष एवं श्राद्घ का पुराणों मे महत्त्व (भाग 5) 

पितृपक्ष एवं श्राद्घ का पुराणों मे महत्त्व (भाग 5) 

पितृपक्ष एवं श्राद्घ का पुराणों मे महत्त्व (भाग 5) 

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समाज में श्राद्ध को लेकर एक भ्रांति फैली हुई है कि इसे बड़े पुत्र या छोटे पुत्र को ही करना चाहिए यह मात्र भ्रम की स्थिति हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि श्राद्ध करने का अधिकार किसे है👉

“मृते पितरि पुत्रेण क्रिया कार्या विधानत: !

बहव: स्युर्यदा पुत्रा: पितुरेकत्रवासिन: !!

सर्वेषां तु मतं कृत्वा ज्येष्टेनैव तु यत्कृतम् !

द्रव्येण चाविभक्तेन सप्वैरेन कृतं भवेत् !!” (वीरमित्रोदय)

अर्थात्👉 पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है कई पुत्र होने पर अंत्येष्टि से लेकर एकादशाह तथा द्वादशाह तक सभी क्रियाएं ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिए विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक श्राद्ध ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा ही एक ही जगह संपन्न हो सकता है यदि पुत्र अलग-अलग हों और अपने पिता की संपत्तियों में बंटवारा कर लिया हो तो सभी भाइयों को अपने पिता के लिए वार्षिक श्राद्ध अलग अलग करना चाहिए !

यदि किसी के पुत्र ना हो तो शास्त्रों में श्राद्ध अधिकार के लिए विभिन्न व्यवस्थाएं प्राप्त है👉

पुत्र: पौत्रश्च तत्पुत्र: पुत्रिकापुत्र एव च !

पत्नी भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा !!

भगिनी भागिनेयश्च सपिण्ड: सोदकस्तथा !

असन्निधाने पूर्वेषैमुत्तरे पिण्डदा: स्मृता: !!” (स्मृतिसंग्रह)

अर्थात्:👉 हमारे धर्म शास्त्रों में पुत्र , पौत्र , प्रपौत्र , दौहित्र (पुत्री का पुत्र) , पत्नी , भाई , भतीजा , पिता – माता , पुत्रवधू , बहन , भांजा , सपिंड एवं सोदक को श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है सबसे पहले यह जान लिया जाए कि सपिण्ड , सोदक , सगोत्र आदि क्या है ?

सपिण्ड:👉 मूलपुरुषमारभ्य सप्तमपर्यन्तं सपिण्डा:”

अर्थात्👉 स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक सपिण्ड मानना चाहिए !

सोदक :- अष्टममारभ्य चतुर्दशपुरुषपर्यन्तं सोदका:”

अर्थात्:👉 आठवीं से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक सोदक कहा गया है !

“सगोत्र :- पञ्चदशमारभ्य एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्रा:”

अर्थात्:👉 पन्द्रहवीं पीढ़ी से लेकर इक्कीसवीं पीढ़ी तक सगोत्री मानना चाहिए !

और श्राद्ध कौन कर सकता है इसका निर्देश भी हमें शास्त्रों में मिलता है👉

“पुत्र पौत्र प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातृसन्तति: !

सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते !!

तेषामभावे सर्वेषां समानोदकसन्तति: !

मातृपक्षसपिण्डेन् सम्बद्धा ये जलेन वा !!

कुलद्वये$पि चोच्छिन्ने स्त्रीभि: कार्या: क्रिया नृप !!

संघ्गातान्तगतैर्वापि कार्या: प्रेतस्य च क्रिया: !

उत्सन्नबन्धुरिक्थीद्वा कारयेदवनीपति: !!” (विष्णु पुराण)

अर्थात्:👉 पुत्र , पौत्र , प्रपौत्र , भाई , भतीजा अथवा अपनी सपिंड संतति में उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्ध आदि क्रिया करने का अधिकारी होता है ! यदि इनका सबका अभाव हो तो सामानोदक की संतति अथवा मातृपक्ष के सपिंड अथवा सामानोदक को इसका अधिकार है यदि मातृकुल और पितृकुल दोनों के नष्ट हो जाने पर कोई ना बचा हो तो स्त्री ही इस क्रिया को करें यदि स्त्री भी ना बची हो तो मित्रों में से कोई ऐसा कर सकता है। यदि मित्र भी श्राद्ध क्रिया करने को तैयार ना हो तो बांधवहीन मृतक के धन से राजा ही उसके संपूर्ण प्रेतकर्म एवं श्राद्ध आदि कर्म निष्पादित करें क्योंकि कहा गया है👉

“पिता हि सर्वभूतानां राजा भवति सर्वदा” (वाल्मीकि रामायण)

राजा अपनी प्रजा के लिए पिता के समान होता है इसलिए किसी के ना होने पर राजा को श्राद्धकर्म कर देना चाहिए इसके अतिरिक्त और भी विधान हमारे शास्त्रों में देखने को मिलते हैं:-

“पितु: पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया !

पुत्राभावे तु पत्नी स्यात् पत्न्यभावे तु सोदर: !!” (हेमाद्रि)

अर्थात👉 पिता के पिंडदान आदि की संपूर्ण क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिए यदि पुत्र ना हो तो पुत्र के अभाव में पत्नी करे और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को श्राद्ध संपन्न कर देना चाहिए कहने का तात्पर्य है कि मृतक की अंतिम क्रिया , एवं श्राद्ध , वार्षिक श्राद्ध आदि अवश्य होना चाहिए ! बिना श्राद्ध के मृतात्मा को शांति नहीं मिल सकती इसलिए किसी न किसी प्रकार श्राद्धादि संपन्न करते रहना चाहिए

क्रमश: शेष अगले लेख मे…

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