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ढाबे वाली आंटी ओर एक छात्र - Sanatan-Forever

ढाबे वाली आंटी ओर एक छात्र

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ढाबे वाली आंटी ओर एक छात्र

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जी…वो खाना..मिलेगा क्या” प्रमोद ने सकुचाते हुए उनसे पूछा

“नए आये हो न?…ढाबे में खाना नहीं मिलेगा तो और क्या मिलेगा” उनकी अनुभवी आँखों ने उसकी  सकुचाहट को पढ़ लिया “क्या लगाऊँ ?” उन्होंने पूछा

“जी..अ..बस ये लोग जो खा रहे हैं.. मतलब दाल रोटी.. कितने की होगी ये ?” एक दो लोग और थे जो वहाँ खाना खा रहे थे उनकी थाली में दाल रोटी सब्जी चावल देख के प्रमोद ने वही खाने को उनसे कह दिया

“20 रुपये की थाली है, चार रोटी दाल सब्जी और चावल,आराम से बैठो बेटा,लगाती हूँ” उन्होंने बड़ी ममता से कहा और रसोई में चली गईं

“ओह्ह..जी पर एक बात है मेरे पास सिर्फ..सिर्फ..उन्नीस रूपये हैं” प्रमोद  बड़ी शर्मिन्दिगी से बोल पाया।

“कोई नहीं बाद में दे देना,अब खाना खाने तो रोज ही आओगे न यहाँ” उन्होंने जाते जाते मुड़के मुस्कुराते हुए वात्सल्य प्रेम में डूबी आवाज में मुझसे कहा

“जी..जी..ठीक है” वह चैन की साँस लेते हुए बोला उसके बाद  खाना खाया और पैसे देकर वह अपने  कमरे पे आ गया।

एक गरीब माँ बाप का होनहार मगर बहुत शर्मीला बेटा प्रमोद यहाँ झुंझुनूं में आगे पढ़ने आया था  सेक्टर किसान कॉलोनी के पास कस्वां भवन में एक सस्ता कमरा लेकर रह रहा था। आज उसका पहला दिन है। तहसील चौराहे , वैसे ये है तो तिराहा पर इसे चौराहा क्यों कहते हैं किसी को नहीं पता, इसी चौराहे पर  ये आंटी का ढाबा है ।

ढाबा क्या सड़क किनारे  बने एक छोटे से मकान के निचले हिस्से में एक महिला जिन्हें सब ऑन्टी कहते हैं मीनू में सिर्फ दो आइटम वाला ये ढाबा चलाती हैं ढाबे में मजबूर मगर मध्यम लोग ही खाना खाने आते हैं जो सस्ता खाना ढूँढते हैं इसलिए ढाबे की हालत और उसकी कमाई में से कौन ज्यादा खस्ताहाल है ये कहना जरा मुश्किल है।

अगले दिन प्रमोद  फिर जाता है  ढाबे में आंटी उसे  देखकर मुस्कुराती हैं वह भी हल्का मुस्कुराता है शायद कल के बाद से थोड़ा सा आत्मविश्वास  आया है उसने कहा  “आंटी.. खाना लगा दीजिये पर आपसे एक विनती है,आप थाली से एक रोटी कम कर दीजिये क्योंकि मेरे पास उन्नीस रुपैये से ज्यादा खाने पे खर्च करने को नहीं हैं”।

उसने  सोचा खाने से पहले ही साफ़ साफ़ बता दिया जाय ई

हालाँकि  बजट बीस रुपैये का था पर एक रुपया रोज बचा के जब छुट्टियों में घर जाऊँगा तो अपनी माँ के लिए कुछ उपहार ले जाऊँगा ये सोच के प्रमोद ने  यह  नीति बनाई थी

“ठीक है,बैठ जाओ अभी लगाती हूँ” कहकर वो रसोई में चली गईं, एक तरफ की दीवार से लगीं मेज कुर्सियां पड़ी थीं और दूसरी ओर एक दीवार पे जमीन से करीबन ढाई फुट ऊँचा एक प्लेटफॉर्म बना था जिसपे चूल्हा बर्तन इत्यादि रखे थे बस वही रसोई थी ।

आंटी का कद बहुत छोटा है जिसकी वजह से रसोई का प्लेटफॉर्म उनसे थोड़ी ज्यादा ऊँचाई पे पड़ता है और उन्हें खाना बनाने के काम में काफी कठिनाई आ रही है थोड़ी देर बाद वो खाने की थाली ले आईं।

“अरे…आप तो इसमें चार रोटी ले आईं, मैंने आपसे कहा…” मैं आगे कुछ कहता कि वो बोल पड़ीं ” देखो बेटा.. मैं एक बूढ़ी अकेली औरत बस इसलिए ढाबा चलाती हूँ कि तुम लोगों के साथ मेरी भी दो रोटी का इंतजाम हो जाए,अब एक रुपये के लिए क्या तेरा पेट काटूँगी” कहकर उसके  सर पे हाथ फेरकर वो चली गईं।

ऐसे ही रोज ये क्रम चलता रहा प्रतिदिन वह ऑन्टी को ऊँचे प्लेटफॉर्म पे बड़ी मुश्किल से काम करते देखता,घुटनो में तकलीफ के कारण बैठ के कोई काम उनसे हो नहीं पाता था,खाना खाता ,उन्नीस रुपये देता कुछ हल्की फुल्की बातें उनसे होती बस ऐसे ही कुछ महीने बीत गए और फिर आज के दिन वह काफी देर से ढाबे पे आया ।

“अरे..आज बड़ी देर कर दी तूने सब ठीक तो है। बैठ मैं खाना लगाती हूँ” ऑन्टी की आँखों में चिंता थी, प्रमोद ने  कहा “सब ठीक है और हाँ खाना तो खाऊंगा ही पर पहले आप रसोई में आओ मेरे साथ”

उनका हाथ पकड़ के वह  रसोई वाले हिस्से में उन्हें ले आया और उन्हें रसोई के प्लेटफॉर्म की ओर खड़ा किया और फिर उनके पैरों के नीचे पूजा पाठ वाली दुकान से खरीदी लकड़ी की एक मजबूत चौकी रखने लगा तो वो आश्चर्य से भर गईं, उसपे खड़ी हुईं और उनकी आँखों ने न जाने कितने वर्षों के बंधे बाँध खोल दिए,प्रमोद ने  उनके पैर छुए और कहा “हैप्पी मदर्स डे ऑन्टी”

आंटी ने प्रमोद को गले लगा लिया, और रोते हुए बोली- ऐसा बेटा भगवान सभी को दे!

हमें भी जहाँ तक सम्भव हो ऐसे लोगों की मदद जरूर करनी चाहिए जिससे समाज मे प्रेरणा मिले और समाज आगे की और अग्रसर रहे..!!

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