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ज्ञान और सीख कहीं से भी मिल सकती है… - Sanatan-Forever

ज्ञान और सीख कहीं से भी मिल सकती है…

ज्ञान और सीख कहीं से भी मिल सकती है…

ज्ञान और सीख कहीं से भी मिल सकती है…

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विवेकानंद राजस्थान के एक रजवाड़े में मेहमान थे। खेतरी के महाराजा के मेहमान थे। अमरीका जाने के पहले। अब महाराज तो महाराजा! अब विवेकानंद का स्वागत कैसे करें? और अमरीका जाता है संन्यासी, पहला संन्यासी, स्वागत से विदा होनी चाहिए! तो हर एक की अपनी भाषा होती है, अपने सोचने का ढंग होता है, महाराजा और क्या करता, उसने देश की सबसे बड़ी जो खयातिनाम वेश्या थी, उसको बुलावा भेजा। बड़ा जलसा मनाया। वेश्या का नाच रखा। यह भूल ही गए कि किसके लिए यह स्वागत-समारोह हो रहा है। विवेकानंद के लिए!

और जब विवेकानंद को आखिरी घड़ी पता चला–सब साज बैठ गए, वेश्या नाचने को तत्पर है, दरबार भर गया, तब विवेकानंद को बुलाया गया कि अब आप आएं, अब उन्हें पता चला कि एक वेश्या का नृत्य हो रहा है उनके स्वागत में! विवेकानंद की दशा समझ सकते हो! बड़े मन को चोट लगी कि यह कोई बात हुई! संन्यासी के स्वागत में वेश्या! इंकार कर दिया जाने से। साधारण भारतीय संन्यासी की धारणा यही है! इंकार कर दिया जाने से। अपमानित किया अपने को अनुभव। यह तो असम्मानजनक है।

वेश्या बड़ी तैयार होकर आयी थी। संन्यासी का स्वागत करना था, कभी किया नहीं था संन्यासी के स्वागत में कोई नाच-गान, बहुत तैयार होकर आयी थी, बहुत पद याद करके आयी थी– कबीर के, मीरा के, नरसी मेहता के। बहुत दुखी हुई कि संन्यासी नहीं आएंगे। मगर उसने एक गीत नरसी मेहता का गाया–बहुत भाव से गाया, खूब रोकर गाया, आंखों में झर-झर आंसू बहे और गाया। उस भजन की कड़ियां विवेकानंद के कमरे तक आने लगी। और विवेकानंद के हृदय पर ऐसी चोट पड़ने लगी जैसे सागर की लहरें किनारे से टकराएं, पछाड़ खाए। फिर मन में बड़ा पश्चात्ताप हुआ।

नरसी मेहता का भजन है कि एक लोहे का टुकड़ा तो पूजागृह में रखते हैं, एक लोहे का टुकड़ा बधिक के घर होता है, लेकिन पारस पत्थर को थोड़े ही कोई भेद होता है। चाहे बधिक के घर का लोहा ले आओ। जिससे काटता रहा हो जानवरों को, और चाहे पूजागृह का लोहा ले आओ, जिससे पूजा होती रही हो, पारस पत्थर तो दोनों को छूकर सोना कर देता है। यह बात बहुत चोट कर गयी, घाव कर गयी। यह विवेकानंद के जीवन में बड़ी क्रांति की घटना थी।

मेरे अपने देखे, रामकृष्ण जो नहीं कर सके थे, उस वेश्या ने किया। विवेकानंद रोक न सके, आंख से आंसू गिरने लगे–यह तो चोट भारी हो गयी!  अगर तुम पारस पत्थर हो, तो यह भेद कैसा? पारस पत्थर को वेश्या दिखाई पड़ेगी, सती दिखाई पड़ेगी? पारस पत्थर को क्या फर्क पड़ता है– कौन सती, कौन वेश्या! लोहा कहां से आता है, इससे क्या अंतर पड़ता है, पारस पत्थर के तो स्पर्श मात्र से सभी लोहे सोना हो जाते हैं।

रोक न सके अपने को। पहुंच गए दरबार में। सम्राट भी चौंका। लोग भी चौंके कि पहले मना किया, अब आ गए! और आए तो आंख से आंसू झर रहे थे। और उन्होंने कहा, मुझे क्षमा करना, उस वेश्या से कहा, मुझे क्षमा करना, मैं अभी कच्चा हूं, इसलिए आने से डरा। कहीं न कहीं मेरे मन में अभी भी वासना छिपी होगी, इसीलिए आने से डरा। नहीं तो डर की क्या बात थी? लेकिन तूने ठीक किया, तेरी वाणी ने मुझे चौंकाया और जगाया।

विवेकानंद उस घटना का बहुत स्मरण करते थे कि एक वेश्या ने मुझे उपदेश दिया। यह भेद! सच्चे ज्ञानी के पास अभेद है। पापी जाए तो, पुण्यात्मा जाए तो, दोनों को छूता है, दोनों को स्वर्ण कर देता है। उसकी आंखों का जादू ऐसा है, उसके हृदय का जादू ऐसा है।

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