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चातुर्मास महात्म्य (अध्याय – 04) - Sanatan-Forever

 चातुर्मास महात्म्य (अध्याय – 04)

चातुर्मास महात्म्य (अध्याय - 04)

 चातुर्मास महात्म्य (अध्याय – 04)

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इस अध्याय में पढ़िये👉 ब्रह्माजी के द्वारा मानसी और शारीरिक सृष्टि का प्रादुर्भाव, चारों वर्णों के धर्म तथा शूद्र जातियों के भेदों का वर्णन।

नारदजी ने पूछा–’पितामह ! अट्ठारह प्रकार की प्रजाएँ कौन-कौन-सी हैं? उनकी जीवनवृत्ति और धर्म क्या है? यह सब बताइये।’

ब्रह्माजी ने कहा–’अपने काल के परिमाण से जब जगदीश्वर भगवान् श्रीहरि योगनिद्रा से जाग्रत्  हुए, तब उस समय उनकी नाभि से प्रकट हुए कमल कोष से मेरा जन्म हुआ। तदनन्तर उस कमल की नाल से भगवान् के उदर में प्रवेश करके जब मैंने देखा, तब वहाँ मुझे कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों के दर्शन हुए; परंतु फिर जब बाहर आया तब सृष्टि के पदार्थ और उसके हेतुओं को भूल गया।

तब आकाशवाणी हुई–’महामते ! तपस्या करो।’ यह भगवदीय आदेश पाकर मैंने दस हजार वर्षों तक तपस्या की। फिर मन के द्वारा पहले मानसी सृष्टि का चिन्तन किया उससे मरीचि आदि मुनीश्वर ब्राह्मण प्रकट हुए।

नारद ! उन्हीं में सबसे छोटे होकर तुम उत्पन्न हुए तुम ज्ञानी एवं वेदान्त के पारंगत पण्डित हुए। वे सब मुनि कर्मनिष्ठ हो सदा सृष्टि विस्तार के लिये उद्योग करने लगे। परंतु तुम अनन्य भाव से भगवान् विष्णु के भक्त हुए। एकान्तत: ब्रह्मचिन्तन परायण, ममता और अहंकार से शून्य हुए। तुम भी मेरे मानस पुत्र ही हो। मानसी सृष्टि के पश्चात् मैंने देहजा सृष्टि की रचना की मेरे मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, दोनों ऊरुओं से वैश्य और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए अनुलोम और विलोम क्रम से शूद्र से नीचे-नीचे सब मेरे चरणतलों से ही प्रकट हुए हैं। वे सब प्रकृतियाँ (प्रजाजन) मेरे शरीर के अवयव विशेष से उत्पन्न हैं।

नारद! मैं तुमसे उनके नाम बताता हूँ, सुनो–ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन ही द्विज हैं। वेद, तपस्या, पठन, यज्ञ करना और दान देना–ये सब इनके कर्म हैं। द्विजों को पढ़ाने और थोड़ा-सा प्रतिग्रह लेने से ब्राह्मणों की जीविका चलती है यद्यपि ब्राह्मण तपस्या के प्रभाव से दान ग्रहण करने में समर्थ है, तथापि वह प्रतिग्रह न स्वीकार करे; क्योंकि उसे अपने तपोबल की रक्षा सदा करनी चाहिये। वेदपाठ, विष्णु-पूजन, ब्रह्मध्यान, लोभ का अभाव, क्रोध न होना, ममता शून्यता, क्षमासारता, आर्यता (श्रेष्ठ आचार का पालन), सत्कर्म परायणता, दानरूपी कर्म तथा सत्यभाषण आदि सद्गुणों से जो सदा विभूषित होता है, वह ब्राह्मण कहलाता है।

क्षत्रिय को तपस्या, यज्ञ, दान, वेदपाठ और ब्राह्मण भक्ति–ये सब कर्म करने चाहिये। शस्त्रों से इनकी जीविका चलती है स्त्री बालक, गौ, ब्राह्मण और भूमि की रक्षा के लिये, स्वामी पर आये हुए संकट को टालने के लिये, शरण में आये हुए की रक्षा के लिये तथा पीड़ितों की आर्त पुकार सुनकर उन सबका संकट दूर करने के लिये जो सदा तत्पर रहते हैं, वे ही क्षत्रिय हैं।

वैश्य धन बढ़ाने वाला पशुओं का पालक, कृषि कर्म करने वाला रस आदि का विक्रेता तथा देवताओं और ब्राह्मणों का पूजक है। वह सूद लेकर धन की उत्पत्ति करे, यज्ञ आदि कर्मो का अनुष्ठान करता रहे, दान और स्वाध्याय भी करे। ये सब वैश्य के कर्म बताये गये हैं।

शूद्र भी प्रात:काल उठकर भगवान् का चरण-वन्दन करके विष्णु भक्ति मय श्लोकों का पाठ करते हुए भगवान् विष्णु के स्वरूप को प्राप्त होता है। जो वर्ष में आने वाले सभी व्रतों का तिथि तथा वारके अधिदेवता की प्रसन्नता के लिये पालन करता है और सब जीवों को अन्नदान करता है, वह शूद्र गृहस्थ श्रेष्ठ माना गया है। वह वेदमन्त्रों के उच्चारण के बिना ही इस लोक में सब कर्म करते हुए मुक्त होता है। चातुर्मास्य का व्रत करने वाला शूद्र भी श्रीहरि के स्वरूप को प्राप्त होता है।

महामुने! सभी वर्णों, आश्रमों और जातियों के लिये भगवान् विष्णु की भक्ति सबसे उत्तम मानी गयी है। जो पवित्र चित्त वाला मनुष्य इस परम पवित्र पुराण को पढ़ता अथवा सुनता है, वह पूर्वजन्मोपार्जित समस्त पापों का नाश करके श्रीविष्णु की आराधना में तत्पर हो विष्णुलोक को प्राप्त होता है।’

संदर्भ👉  श्रीस्कन्द महापुराण

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