चातुर्मास महात्म्य (अध्याय – 03)
〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️

इस अध्याय में पढ़िये–चातुर्मास्य में विशेष-विशेष तप और भगवान् की षोडशोपचार पूजा का क्रम।
ब्रह्माजी कहते हैं- षोडशोपचार से सदैव भगवान् विष्णु की पूजा करना तप है और भगवान् के शयन करने पर वही महातप कहा गया है। इसी प्रकार सदा पंचयज्ञों का अनुष्ठान भी तप है; परंतु चातुर्मास्य में श्रीहरि को निवेदन करने पर वही महातप हो जाता है। ऋतुकाल में स्त्री के साथ सम्बन्ध करना गृहस्थ के लिये सदा ही तप माना गया है, किंतु वही चातुर्मास्य में श्रीहरि की प्रीति के लिये किया जाय तो महातप है। सदा सत्य बोलना तप है।
यह भूतल पर निवास करने वाले प्राणियों के लिये दुर्लभ तप कहा गया है। देवेश्वर श्रीहरि के शयन करने पर यह सत्यभाषण रूपी तपस्या करने वाला मनुष्य अनन्त फल का भागी होता है। अहिंसा आदि गुणों का पालन करना सदा ही तप है; किंतु चातुर्मास्य में वैरभाव का परित्याग करके उसका पालन किया जाय तो वह महातप कहा गया है। पंचायतन पूजा महातप है। मनुष्य चातुर्मास्य में श्रीहरि की प्रीति के लिये इस महातप का विशेष रूप से अनुष्ठान करे। सभी पर्वो के अवसर पर सदा दान देना चाहिये, यह तप है; परंतु चातुर्मास्य में विशेष रूप से उसका पालन करने पर वह दान अनन्त होता है।
चौमासे में दो प्रकार का शौच ग्रहण करना चाहिये। एक बाह्य शौच और दूसरा आन्तरिक शौच। जल से नहाना-धोना बाह्य शौच कहलाता है और श्रद्धा से अन्त:करण को शुद्ध करना आन्तरिक शौच है। इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिये। यह तपस्या का उत्तम लक्षण है। किंतु चातुमर्मास्य में इन्द्रियों की चंचलता दूर हो तो वह महातप कहा गया है।

इन्द्रियरूपी घोड़ों को काबू में रखकर मनुष्य सदा सुख पाता है। वे इन्द्रियरूपी अश्व जब कुमार्ग से चलने लगते हैं, तब जीव को नरक में गिराते हैं। यह काम महान् शत्रु है। इस एकको ही दृढ़ता पूर्वक जीते। जिन महात्माओं ने काम को जीत लिया है, उन्होंने सम्पूर्ण जगत् पर विजय पा ली है। काम और संकल्प पर विजय पा लेना ही तपस्या का मृल है। वही सबसे उत्तम ज्ञान है जिसके द्वारा काम को जीत लिया जाय। लोभ सदा त्याग देने योग्य है; क्योंकि लोभ में पाप की स्थिति है। लोभ को जीत लेना ही तप है। चातुर्मास्य में इसका विशेष महत्त्व है। मोह का अर्थ है अविवेक। वह सदा त्याग देने योग्य है। जो मोह से रहित है, वही ज्ञानी है।
मनुष्यों के शरीर में रहने वाला मद ही महान् शत्रु है। यों तो सदा ही किंतु चातुर्मास्य में विशेष रूप से उसका निग्रह करना चाहिये। मान बड़ा भयंकर शत्रु है। वह सब प्राणियों के भीतर निवास करता है। उसे क्षमा द्वारा जीतना चाहिये। चातुर्मास्य में उसे जीतना अधिक गुणकारी होता है। मात्सर्य (ईर्ष्या) भी महान् पातक का कारण है। अत: विद्वान् पुरुष चातुर्मास्य में उसको जीते। जिसने उसे जीत लिया, उसने तीनों लोक जीत लिये। अहंकार के वशीभूत हुए अजितेन्द्रिय मुनि धर्म मार्ग को छोड़कर कुमार्ग के कर्म करने लगते हैं। अत: अहंकार का परित्याग करके मनुष्य सदैव सुख पाता है। विशेषत: चातुर्मास्य में अहंकार के त्याग का महान् फल है। यह तपस्या का मूल है।

जो मनुष्य विष्णु के शयन काल में प्रतिदिन एक समय भोजन करता है, उसे द्वादशाह यज्ञ का फल मिलता है। जो मनुष्य चातुमर्मास्य में प्रतिमास नित्य चान्द्रायणव्रत करता है, उसके पुण्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। जो भगवान् विष्णु के शयनकाल में कृच्छू व्रत का सेवन करता है, वह पापराशि का नाश करके वैकुण्ठ में भगवान् का पार्षद होता है।
जो चातुर्मास्य में केवल दूध पीकर रहता है, उसके सहस्रों पाप तत्काल विलीन हो जाते हैं। यदि धीर पुरुष चौमासे में नित्य परिमित अन्न का भोजन करता है, तो वह सब पातकों का नाश करके वैकुण्ठधाम पाता है। चौमासे में एक अन्न भोजन करने वाला मनुष्य रोगी नहीं होता। जो क्षार लवण का सेवन करने वाला नहीं है, उसमें पाप का अभाव हो जाता है।
चौमासे में भगवान् विष्णु की प्रसन्नता के लिये फलाहार करने वाला मनुष्य बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो जाता है। जो कन्द-मूल का आहार करता है, वह अपने साथ पूर्वजों का भी घोर नरक से उद्धार करके भगवान् विष्णु के लोक में जाता है। जो प्रतिदिन चौमासे में केवल जल पीकर रहता है, उसे रोज-रोज अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त होता है।
जो मनुष्य चौमासे में श्रीहरि की प्रीति के लिये शीत और वर्षा सहन करता है, उस पर प्रसन्न होकर भगवान् जगन्नाथ उसे अपने-आपको दे डालते हैं। जो मन-ही-मन भगवान् नारायण का चिन्तन करके इस परम पवित्र और पाप की शुद्धि के हेतुभूत पुराण को सुनता अथवा पढ़ता है, वह मरकर मोक्ष को प्राप्त होता है।

नारदजी ने पूछा- प्रजापते! सोलह उपचारों से किस प्रकार भगवान् की पूजा की जाती है ?
ब्रह्माजी ने कहा- वेदों और शास्त्रोंक्षके विधान के अनुसार भगवान् विष्णु की भक्ति दृढ़ करनी चाहिये। यह सब जो कुछ दिखायी देता है, सबका मूल वेद है और वेद सनातन भगवान् विष्णु का स्वरूप है। वेदों के आधार हैं ब्राह्मण तथा ब्राह्मणों के देवता अग्नि हैं। अग्नि में आहुति डालने वाला ब्राह्मण यज्ञ में सदा भगवान् श्रीहरि का यजन करता हुआ तथा श्रीविष्णु की पूजा में निरन्तर संलग्न रहता हुआ सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है।
भगवान् नारायण का स्मरण और ध्यान क्लेश, दु:ख आदि का नाश करने वाला है। चातुर्मास्य में भगवान् श्रीहरि जल में विशेष रूप से व्याप्त रहते हैं। जल से अन्न पैदा होता है, जिससे जगत् की तृप्ति होती है। वह अन्न भगवान् विष्णु के शरीर के अंश से उत्पन्न होता है। अन्न को ‘ब्रह्म’ कहते हैं।
वह अन्न आवाहन पूर्वक भगवान् विष्णु को समर्पण करके मनुष्य पुनर्जन्म, वृद्धता और क्लेश के संस्कारों द्वारा तिरस्कृत नहीं होता। ‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष:०’ इत्यादि जो सोलह ऋचाओं वाला यजुर्वेद का महासूक्त है, वह सर्वोत्कृष्ट नारायणमय है। उसके पाठमात्र से भी ब्रह्महत्या दूर हो जाती है। ब्राह्मण को उचित है कि वह पहले स्मृतियों में बतायी हुई विधि के अनुसार अपने शरीर में उक्त सोलह सूक्तों का न्यास करे। तत्पश्चात् भगवान् की प्रतिमा अथवा शालिग्राम शिला में विशेष रूप से न्यास करे। फिर क्रमश: आवाहन आदि करे।
वैकुण्ठधाम में विराजमान, कौस्तुभ मणि से सुशोभित, कोटि-कोटि सूर्यो के समान तेजस्वी, दण्डधारी, शिखासूत्र से सुशोभित पीताम्बरधारी रूप से भगवान् विष्णु का आवाहन करके ध्यान करे। सब पापों के समूह का नाश करने वाले श्रीविष्णु को इस रूप में अपने ध्यान में स्थिर करके उन्हें पूजा के लिये अपने आगे आवाहन करे पुरुषसूक्त की प्रथम ऋचा ‘सहस्त्रशीर्षा पुरुष:’ इत्यादि मन्त्र के आदि में ॐकार जोड़कर उसका उच्चारण करे और उसी के द्वारा भगवान् का आवाहन करे। इसी प्रकार दूसरी ऋचा ‘पुरुष एवेदम्’ इत्यादि से पार्षदों सहित श्रीहरि को आसन समर्पित करे।

वे सभी आसन सुवर्णमय हैं, ऐसा मन-ही-मन चिन्तन करे। भक्तियोग से चिन्तन करनेपर वह परिपूर्ण होता है। फिर तीसरी ऋचा से पाद्य समर्पण करे और उसमें गंगाजी का स्मरण करें। उसके बाद सरिताओं तथा सातों समुद्रों के जल से जगदीश भगवान् विष्णु को अर्घ्य दे। सरिताओं और सागरों का चिन्तनमात्र करना चाहिये। चौथी ऋचा से अर्घ्य दान करना उचित है। इसके बाद श्रीहरि को अमृत से आचमन करावे। तीन आचमन से ब्राह्मण की शुद्धि बतायी गयी है।
आचमन का जल स्वच्छ एवं फेन और बुद्बुद से रहित होना चाहिये। ब्राह्मण इतने जल से आचमन करे कि वह उसके हृदय तक पहुँच जाय, क्षत्रिय कण्ठ तक जाने लायक जल से आचमन करे और वैश्य तालुतक पहुँचने लायक जल से आचमन करे। स्त्री और शूद्र एक बार जल का स्पर्श मात्र करने से शुद्ध हो जाते हैं।
पाँचवीं ऋचा के द्वारा भक्तियुक्त चित्त से आचमन करना चाहिये। भगवान् हृषीकेश भक्ति से ग्रहण करने योग्य हैं। भक्ति से वे अपने-आपको भी समर्पित कर देते हैं। तत्पश्चात् सुगन्धित पदार्थो द्वारा सुवासित और सभी ओषधियों से युक्त सुवर्णमय कलशों में रखे हुए जल से भगवान् को स्नान करावे। श्रद्धा पूर्वक मन से भावना द्वारा लाये हुए तीर्थ जल से स्नान कराना चाहिये। श्रद्धा के बिना दी हुई रत्नों की राशि भी निष्फल होती है और श्रद्धा से दिया हुआ जल भी अक्षय फल देने वाला होता है। छठी ऋचा से स्नान कराकर पुनः आचमन कराना चाहिये।

सातवीं ऋचा से भगवान् विष्णु के लिये वस्र देना चाहिये। आठवीं से यज्ञोपवीत समर्पित करे, नवीं ऋचा से यज्ञमूर्ति श्रीहरि के श्रीअंगों पर उत्तम चन्दन का लेप करना चाहिये। जिसने सुन्दर यक्षकर्दम के द्वारा जगद्गुरु भगवान् विष्णु के अंगों में लेप किया है, उसने अपने सुयश से इस संसार को आच्छादित एवं तृप्त किया है।
चन्दन देने वाला मनुष्य संसार में अपने तेज से भगवान् सूर्य के समान होकर देवभाव को प्राप्त होता और ब्रह्मादि देवताओं के लोक में आनन्द का अनुभव करता है। जो मनुष्य चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु को चन्दन के आलेप से सुन्दर रूप में देखते हैं, वे कभी यमपुरी में नहीं जाते। दसवीं ऋचा से भक्ति पूर्वक पुष्प चढ़ाकर भगवान् कघ पूजा करे। पुष्पों से पूजित हुए भगवान् विष्णु को यदि दूसरे लोग भी प्रणाम करते हैं, तो उन्हें भी अक्षय लोक प्राप्त होते हैं।
ग्यारहवीं ऋचा से श्रीहरि को धूपदान करना चाहिये- ‘उत्तम गन्ध से युक्त दिव्य वनस्पति का रस तथा अतिशय सुगन्धित यह धूप सम्पूर्ण देवताओं के सूँघने योग्य है, भगवन्! आप इसे ग्रहण करें। इस मन्त्र का उच्चारण करके भगवान् को अगुरु का धूप निवेदन करे। चातुमर्मास्य में इसका महान् फल है।
कपूर, चन्दनदल, मिश्री, मधु और जटामासी से युक्त धूप श्रीहरि के शयनकाल में निवेदन करना चाहिये। देवता सूँघनेसे ही प्रसन्न होते हैं। अत: धूप उनकी घ्राणेन्द्रिय को तृप्त करने का शुभ साधन है। मुक्ति की इच्छा रखने वाले पुरुषों को बारहवीं ऋचा से दीपदान करना चाहिये। जो चातुर्मास्य में भगवान् विष्णु के आगे दीपदान करता है, उसकी पापराशि पल भर में जलकर भस्म हो जाती है।

दीपदान के अनन्तर मोक्ष पद में स्थित भक्ति युक्त पुरुषों को तेरहवीं ऋचा के द्वारा भगवान् को अन्नमय नैवेद्य निवेदन करना चाहिये। अन्नदान के अनन्तर भगवान् को पुन: आचमन कराना चाहिये। तत्पश्चात् चौदहवीं ऋचा से सब पापों का नाश करने वाली आरती उतारे और भगवान् को नमस्कार करे।
पंद्रहवीं ऋचा के द्वारा ब्राह्मणों के साथ भगवान् के चारों ओर घूमकर परिक्रमा करनी चाहिये। चार बार परिक्रमा करने से चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण जगत् की परिक्रमा तथा भगवत्सम्बन्धी तीर्थों की यात्रा सम्पन्न हो जाती है। तदनन्तर सोलहवीं ऋचा द्वारा भगवान् विष्णु के साथ अपनी एकता का चिन्तन करे -‘मैं ही सदा विष्णु हूँ’ इस प्रकार अपने मन में भावना करने वाला ब्राह्मण जीवन्मुक्त हो जाता है। चौमासे में ब्राह्मण को विशेष रूप से योगयुक्त होना चाहिये।
इस प्रकार यहाँ मोक्ष मार्ग प्रदान करने वाले भगवान्वि ष्णु की भक्ति बतायी गयी।