कहानी-पोस्टकार्ड
‘तुम फिर आ गईं अम्मा?’-डाकखाने के बड़े बाबू ने उस बुढि़या को दुत्कारते हुए कहा जिसके बदन पर एक सफ़ेद मामूली सी धोती थी। चेहरे की झुर्रियों में आँखों से बरस रह आँसू भरे हुए थे,
लेकिन उन आँखों में एक उम्मीद, एक आस अब भी बरकरार थी, जिसने उसे कहने पर विवश कर दिया -‘बड़े बाबू ध्यान से देखो, दिल्ली से मेरे बेटे की चिट्ठी आज ज़रूर आयी होगी?’
बड़े बाबू ने खीझकर कहा -‘अम्मा, मैं तुमसे पिछले दस सालों से लगातार कह रहा हूँ कि जिस दिन तुम्हारा कोई पत्र आयेगा मैं ख़ुद उसे तुम्हारे पास पहुँचा आऊँगा । भगवान के लिए तुम यहाँ मत आया करो।’
अम्मा ने धोती के पल्ले से अपनी आँखें साफ़ कीं और बोझिल क़दमों से चली गई।
‘कौन थी ये बुढि़या?’ -गुप्ता जी ने बड़े बाबू से पूछा, जो शहर के डाक अधीक्षक थे और यहाँ की डाक व्यवस्था का मुआयना करने आये थे।
‘कुछ मत पूछें साहब। बड़ी अजीब कहानी है अम्मा की।’ बड़े बाबू द्रवित से होकर बोले-
‘अम्मा कभी इस कस्बे की सबसे सुखी महिला हुआ करती थी, लेकिन पति के मरने के बाद इसकी खुशियों पर ग्रहण सा लग गया। इसने अपने इकलौते बेटे राजन की परवरिश के लिए सारी ज़मीन बेच दी घर गिरवी रख दिया।
ख़ुद लोगों के कपड़े सीती लेकिन अपने बेटे को अच्छे से अच्छा पहनाया और खिलाया। बड़ा होने पर राजन को पड़ने के लिए शहर भेज दिया, जहाँ से राजन डॉक्टर बनकर वापस आया।
कुछ दिनों तक सब आनन्द में रहा। एक दिन ख़बर आई कि राजन को दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में नौकरी मिल गई है और न चाहते हुए भी उसके सुनहरे भविष्य के लिए अम्मा ने राजन को दिल्ली भेज दिया।
राजन ने अम्मा से वादा किया था कि पहुँचते ही पोस्टकार्ड लिखेगा, मगर आज बीस वर्ष होने को आये लेकिन वह पोस्टकार्ड नहीं आया। अपने बेटे के पत्र की आस में अम्मा पागल सी हो गई है।
इधर-उधर भटकती हुई हर आदमी से पूछती है कि उसके बेटे का पोस्टकार्ड तो नहीं आया। लोग पागल कहकर उसका मज़ाक उड़ाते हैं और कभी-कभी तो उसे कोरा काग़ज़ देकर कहते हैं कि उसके बेटे का पत्र है।
अम्मा खुशी से झूम उठती है और जब पता चलता है कि वह मज़ाक था तो चुपचाप मंदिर की सीडि़यों पर जाकर बैठ जाती है और रोने लगती है या अपना सर ज़मीन पे पटकने लगती है।

रात होने पर अपने खण्डहर बन चुके मकान में जाग-जागकर दीवारों से अपने राजन की बात करती है।’
बड़े बाबू ने ऐनक उतारकर अपनी गीली हो चुकी आँखों को साफ़ किया और पुनः बोले -‘मुझसे अम्मा का यह हाल देखा नहीं जाता इसलिए उन्हें देखकर दिल पे पत्थर सा रखकर भगा देता हूँ।’
…तभी एक व्यक्ति दौड़ा-दौड़ा आया और बड़े बाबू से चिल्लाकर बोला -‘बड़े बाबू कमाल हो गया आज तो अम्मा का पत्र आया है।’
चूँकि पत्र पोस्टकार्ड ही था, इसलिए बड़े बाबू ने उसे पढ़ा, लिखा था
-‘अम्मा आशा है तुम आनन्द में होंगी। तुम्हें जानकर ख़ुशी होगी कि परसों ही तुम्हारी पोती की शादी हुई है।
तुम सोचोगी कि इतने सालों बाद याद कर रहा हूँ, दरअस्ल अम्मा काम इतना है कि साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है।
तुम्हें पता है आज मैं शहर के सबसे बड़े अस्पताल का मालिक हूँ।
शेष फिर कभी लिखूँगा।’