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“एक कदम “ - Sanatan-Forever

“एक कदम “

एक कदम

“एक कदम “

अभी -अभी एक शॉर्ट मूवी “एक कदम “ देखी. मैसेंजर में लिंक मिला. फ़िल्म का नाम और कास्ट देख कर रुक न सकी. रेणुका शहाणे और राजेश तैलंग वैसे भी बहुत पसंद हैं.

फ़िल्म के बारे में क्या बताऊँ… कहानी नहीं बताऊँगी.

बस देख लें. एक बार देख लीजिए.

कहन का , प्रतिरोध का, सेल्फ लव का, अपनी खोज का इतना शांत तरीक़ा, अहिंसात्मक तरीक़ा मन मोह लेगा. जहां जहां मुझे लगा कि एक स्त्री को फट पड़ना चाहिए था, वहाँ वहाँ मुस्कुरा कर, दृढ़ता के साथ चल देती है. जहां जहां मुझे बेहद ग़ुस्सा आया और भीतर से हिंसक वारदात बाहर कारनामा दिखा सकती थी, उन दृश्यों में रेणुका ने बचा लिया और प्रतिरोध का तरीक़ा बताया. बग़ैर लाउड हुए कदम आगे बढ़ाया जा सकता है. बग़ैर बहस और बग़ैर आज्ञा लिए अपने मन के कुछ पल जिए जा सकते हैं. ये कहानी एक स्त्री के जीवन के व्यस्त घरेलू जीवन के कुछ चुराए हुए पलों की कहानी है. बेटा बाहर पढ़ने गया है और कड़क पति अपनी उसी पारंपरिक भूमिका में है. पत्नी पर रोब ज़माना, उसकी महत्वाकांक्षाओं को रौंदना और बैठे -बैठे शक और पहरेदारी करना.

रसोई और पति सेवा से फ़्री होकर , निभा कर एक स्त्री अपनी इच्छाओं को पूरी करने निकलती है.

मुझे खटक रही थीं कुछ बातें- क्या हर समय चिड़चिड़े पति के आगे जी जी करना? विरोध क्यों नहीं जताती? इतना सहती क्यों है? मुंहतोड़ जवाब क्यों नहीं देती ? ये अलग स्त्री है. टिपिकल मध्यवर्गीय स्त्री जिसे घर परिवार के आगे समर्पण करके अपने को विस्मृत कर देने की ट्रेनिंग मिली हुई है. लेकिन एक समय ऐसा आता है जब उसे अहसास होता है और वो सारी ज़ंजीरें तोड़ कर फेंक देती है.

फ़िल्म का अंतिम दृश्य मेरी आँखें नम कर देता है. नायिका मुस्कुरा रही है… और मेरी आँखें गीली हो जाती हैं.

ठीक इसके पहले मेरा दिल डरता है कि जाने क्या होगा आगे. तभी वो चौंका देती है.

जिन्हें लगता है कि सभी स्त्रियाँ सशक्त हो चुकी है, आज़ाद हो चुकी हैं उन्हें ये फिल्म जरुर देखनी चाहिए. घर परिवार की चक्की में घुटतीं साँसों को खुली हवा में घूमते देखना सुख है.

मैंने वो सुख अभी -अभी उठाया.

ये फिल्म कई फ़िल्म समारोह में दिखाई जा चुकी है और पुरस्कृत भी हुई है.

राजीव उपाध्याय जी को एक शानदार फ़िल्म की बधाई.

रेणुका शहाणे तो जान हैं. उनकी मुस्कुराहट पूरी फ़िल्म में ढूँढ रही थी , अंतिम दृश्य में वह मिली और मुझे नम कर गई. सारी पीड़ा पर एक वो निर्मल , निष्कलुष मुस्कान भारी है और समाज परिवार के दिए कष्टों पर , जुल्मों पर बिजली बन कर बरसती है.

यह खुद से प्रीत जोड़ने की कथा है…

मुझे “चल अकेला … चल अकेला “ गाना याद आ रहा है जिसकी एक पंक्ति है –

“तेरा कोई साथ न दे तो तू खुद से प्रीत जोड़ ले…

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